फिलॉसफी ऑफ लव : ‘प्रेम क्या है’ जैसे सवालों को समझने की कोशिश
![प्रेम क्या है](https://wideangleoflife.files.wordpress.com/2019/02/dsc_1531...jpg?w=720)
– they must be felt with the heart — Helen Keller
दरअसल प्रेम की दार्शनिक व्याख्या की ही नहीं की जा सकती। प्रेम उस ‘उच्चतर’ का एक पहलू है जो अव्याख्येय है! फिलॉसफी ऑफ लव शायद इसी मायने में दुनिया की तमाम चीजों की व्याख्या से एकदम अलग है कि यह प्रेम को जानने या समझने की बजाय उसमें होने की ओर आपको अधिक प्रेरित करता है। यह ‘प्रेम क्या है’ का उत्तर देने की बजाए ‘वह क्या नहीं है’ की पड़ताल करता है। भरोसा रखिए, यह आलेख आपको उलझाएगा नहीं बल्कि कब सारे गुंथन सुलझ गए आपको पता भी नहीं चलेगा। बस कुछ होइए मत। कुछ भी मत होइए! एकदम खाली होकर आगे बढ़िए। प्रेम ‘कुछ’ होने की बजाए ‘सब कुछ हो जाने’ जैसा है।
प्रेम क्या है? यह प्रश्न कभी कोई सीधा उत्तर पैदा नहीं कर पाया। प्रेम को समझने के लिए प्रेम का दर्शन यानी फिलॉसफी ऑफ लव समझना होगा। केवल प्रेम ही है जो दुनिया में बिखरे पागलपन, ऊहापोह और झगड़े को खत्म कर सकता है। कोई भी सिस्टम, सिद्धांत- वाम पंथ, दक्षिण पंथ दुनिया में शांति और खुशहाली नहीं ला सकता। जहां प्रेम होता है वहां ‘सत्ता’ नहीं होती, ‘अधिकार’ नहीं होता, ईर्ष्या नहीं होती। परिवार के लिए, पत्नी के लिए, बच्चों के लिए, नौकर के लिए, सहकर्मी और पड़ोसी के लिए, राह चलते मनुष्य के लिए, समाज और पूरी दुनिया के लिए- सिद्धांतों में नहीं, सचमुच- बस करुणा और सहअस्तित्व होता है। केवल प्रेम में ही करुणा और सौंदर्य, सुव्यवस्था और शांति लाने का सामर्थ्य है। प्रेम को वह आशीर्वाद हासिल है कि जब यह होता है तब आपका संकुचित ‘मैं’ खो जाता है।
![फिलॉसफी ऑफ लव -प्रेम क्या है](https://wideangleoflife.files.wordpress.com/2019/02/dsc_6517..jpg?w=720)
There is only one happiness in this life, to love and be loved.- George Sand
प्रेम जाना नहीं जा सकता। इसे आप केवल तब महसूस कर सकते हैं जब दिमाग पहले से जानी हुई चीजों से मुक्त हो जाए, यानी जब हमारा मन पूरी तरह कोरा हो जाए, केवल तभी हम प्रेम की अवस्था में होते हैं, बाकी सब स्मृतियों के दुहराव हैंं। प्रेम अज्ञात है तो आप उसे जानी हुई चीजों से नहीं जान सकते। जानी हुई चीजें आपको अनजानी चीजों तक नहीं ले जा सकतीं। इसलिए आप ऐसे मस्तिष्क की मदद से प्रेम को नहीं जान सकते जो पहले से तमाम तरह की जानी हुई चीजों से भरी है। केवल ऐसा मन जो हर किस्म के प्रभाव से मुक्त हो, आपको प्रेम का अनुभव कराता है। इसलिए, पहले जान लीजिए प्रेम क्या नहीं है, तभी आप जानेंगे प्रेम क्या है।
![प्रेम का दर्शन - फिलॉसफ़ी ऑफ़ लव](https://wideangleoflife.files.wordpress.com/2019/02/dsc01256...jpg?w=720)
फिलॉसफी ऑफ लव : नहीं जानते, प्रेम क्या है? तो जानिए, प्रेम क्या नहीं है!
जब हम कहते हैं मुझे अमुक से प्यार है, तो जरा गहराई से सोचिए क्या हमारी इस घोषणा के पीछे उस व्यक्ति पर हमारे अधिकार होने का भाव नहीं होता? सीधी बात है, हम यह कह रहे होते हैं कि उस आदमी या उस स्त्री पर हमारा अधिकार बनता है। ‘तुम मेरी हो’ ऐसा कहने का क्या अर्थ है? बस यही कि उस स्त्री पर आपका अधिकार है। आप उसे अपने से बांधना चाहते हैं। जरा गहरे सोचकर देखिए, हममें से अधिकतर लोगों के लिए प्रेम क्या है? जब हम प्रेम का दावा करते हैं तो उसमें पजेसिवनेस, अधिकार और आधिपत्य का भाव होता है। इस अधिकार-भाव से जन्म लेती है ईर्ष्या, पैदा होता है खोने का डर और पैदा होते हैं तमाम किस्म के वे मानसिक उथल-पुथल जिनसे हम सब परिचित हैं। इसलिए, पजेसिव होना प्रेम नहीं है। न ही भावनाओं का सैलाब प्रेम है। भावुक होना, सेंटिमेंटल होना आपको प्रेम के भ्रम में प्रेम से दूर ले जाता है। भावुकता और जज्बात केवल दिमागी उत्तेजनाएं हैं, प्रेम नहीं।
एक धार्मिक आदमी का अपने देवता या अपने गुरु के लिए रोना, उत्तेजित होना क्या है? यह भावुकता है, प्रेम नहीं। भावुकता विचारों से पैदा होती है। गढ़ी हुई छवि से पैदा होती है। और आप जानते हैं ध्यान की अवस्था में क्या होता है? वहां विचार नहीं होता, कोई छवि नहीं होती। विचार और छवि हुए तो फिर ध्यान कैसा! प्रेम में होना ध्यान की अवस्था में होने जैसा है। जहां, कोई छवि नहीं होती, ऐसी कोई चीज नहीं जिसका होना विचारों पर टिका हो। विचार मानसिक उत्तेजना से पैदा होते हैं। मन जब तक शांत है, जब तक उसमें तरंग पैदा नहीं होती तब तक विचार नहीं जन्म लेते। विज्ञान कहता है पानी में उठने वाली तरंगे केवल जल के मॉलीक्यूल्स का अपनी ही जगह पर दोलन है। जल में उठने वाली तरंगे जल की सतह पर पड़ी वस्तुओं को कहीं किसी दिशा में नहीं ले जातीं। तरंगों से गति का अहसास होता है, लेकिन वास्तव में यह अपनी ही जगह पर हिलने-डुलने की एक उत्तेजना है, हलचल है। और हलचलों से भरे तालाब में वह नहीं दिखता जो नीचे तल में है। ऐसे ही, भावनाओं के हलचल से भरे मन में प्रेम नहीं दिखता। प्रेम जब दिखता है मन ध्यान में होता है, जहां कोई हलचल नहीं, कोई तरंग नहीं!
![प्रेम में कोई अकेलापन नहीं - फिलॉसफ़ी ऑफ़ लव](https://wideangleoflife.files.wordpress.com/2019/02/dsc_1064....jpg?w=720)
चलिए, यह तो हुआ कि प्रेम भावुकता नहीं है, तो क्या प्रेम क्षमा है? क्षमा क्या है? आपने मुझे गाली दी, मैं दुखी हुआ; फिर किसी बाध्यता या पछतावे में आप मुझसे क्षमा मांगते हैं। मैं कहता हूं, ‘चलो, मैंने क्षमा किया’। इस सबसे क्या हुआ? पहले मैंने पकड़ा और फिर छोड़ दिया। जब छोड़ना था, तो पकड़े ही क्यों? क्योंकि अहंकार को यह चाहिए था। अहंकार पोषण चाहता है, केंद्र में बना रहना चाहता है। वह बार-बार खुद को याद दिलाने के बहाने ढूंढता है कि ‘मैं’ हूं, ऐसा ‘मैंने’ किया। नहीं तो, उसका अस्तित्व ही गायब हो जाए! और आप जानते हैं, गायब केवल उसे किया जा सकता है जो हो ही नहीं। जो वास्तव में होता है उसे कोई गायब कैसे कर सकता है, छुपाया जरूर जा सकता है।
![असीमित फैलाव - फिलॉसफ़ी ऑफ़ लव](https://wideangleoflife.files.wordpress.com/2019/02/dsc_8414..jpg?w=720)
Wayne Dyer
जो कुछ भी दिमाग से उपजता है वह विचारों से जन्मता है। जब तक विचार है तब तक स्मृति है और स्मृति प्रेम नहीं है क्योंक वह दिमाग की चीज है। दिमाग सीमित है और सिद्धांत रूप में ही सही, आप जानते हैं कि प्रेम अनंत है, अथाह है! तो फिर, यह दिमाग से जुड़ी चीज तो कतई नही हो सकती। दिमाग से प्रेम को समझने चलेंगे तो प्रेम नहीं दिखेगा, केवल उसकी विकृत तस्वीर दिखेगी क्योंकि दिमाग केवल विकृति दे सकता है, बोध नहीं! आप दिमाग से प्रेम पर कविता लिख सकते हैं, लेकिन वह प्रेम नहीं होगा। प्रेम की दार्शनिक व्याख्या आपको प्रेम के करीब ले जाती है। उससे आपको बांधती नहीं आपको मुक्त करती है।
वास्तविक सम्मान के बिना प्रेम नहीं हो सकता। सम्मान स्वीकृति है व्यक्ति के अस्तित्व की। किसी को सम्मान देना उसके ‘होने’ का मान करना है, उसके ‘होने’ से आपका सहमत होना ‘सम्मान’ है। दिमाग के हाथों विकृत मन ‘बड़ा’ और ‘छोटा’ के भ्रम में पड़ता है। आम तौर पर ऐसा क्यों होता है कि आप सम्मान केवल ‘बड़े’ का करते हैं। आपका नौकर आपके सम्मान का पात्र क्यों नहीं होता? आपका साथी, आपका बच्चा आपके सम्मान का पात्र क्यों नहीं होता? आप उनका सम्मान करते हैं जो आपको लगता है आपसे ऊपर हैं। आप अपने बॉस का सम्मान करते हैं। नेता, मंत्री, अफसर, धर्मगुरु का सम्मान करते हैं, लेकिन अपने नौकर का नहीं, अपने साथी का नहीं अपने बच्चे का नहीं। आपका व्यवहार और संबोधन तक ‘बड़े’ और ‘छोटे’ में विभाजित है। तो ऐसी विभाजित मानसिकता के साथ प्रेम की आपकी कोई घोषणा निरर्थक है।
![एक तलाश - फिलॉसफ़ी ऑफ़ लव के करीब ले जाता है](https://wideangleoflife.files.wordpress.com/2019/02/dsc_7582.jpg?w=720)
हमारे अन्तर में यदि प्रेम न जाग्रत हो, तो विश्व हमारे लिए कारागार ही है। -रविंद्रनाथ ठाकुर
ज्यादातर स्थितियों में प्रेम नहीं होता है। प्रेम की विकृत तस्वीर होती है। प्रेम के नाम पर अपने अहंकार का पोषण होता है। ज्यादातर स्थितियों में हम प्रेम के नाम से अपनी सत्ता, अपने पजेसिवनेस का ही विस्तार करते हैं, प्रेम नहीं करते।
प्रेम कैसे हो सकता है? केवल तभी जबकि ये सारी खुराफात खत्म हों। प्रेम तब होता है जब आप सत्ता और अधिकार के भाव से मुक्त होते हैं। प्रेम तब होता है जब आप ‘अस्तित्व’ मात्र का मान करते हैं, जब आप दूसरे के प्रति शर्त रहित सम्मान के भाव से भर जाते हैं। प्रेम तब होता है जब आपका सीमित ‘मैं’ पिघल कर उस व्यापक ‘मैं’ में विलीन होता जाता है जहां ‘मैं’ के बोध का होस ही नहीं रहता। प्रेम आपकी और इस दुनिया की सारी समस्याओं का हल है!
![किसे पता, प्रेम क्या है](https://wideangleoflife.files.wordpress.com/2019/02/dsc_5492.jpg?w=720)
आप प्रेम कर नहीं सकते, बस प्रेम में होते हैं, या खुद प्रेम हो जाते हैं। ‘आप प्रेम करते है’- आपको यह कहना नहीं पड़ता। आप बस प्रेम में होते हैं और ओस की हर बूंद, पेड़ का हर पत्ता और धरती का हर कण जान लेता है कि आप प्रेम में है। जब प्रेम होता है तो बस प्रेम ही होता है। ‘मैं’, ‘तुम’, ‘यह’, ‘वह’, ‘इससे’, ‘उससे’ कुछ नहीं रह जाता, बस प्रेम रहता है। प्रेम को आप सोच नहीं सकते, प्रेम पर विमर्श नहीं कर सकते, प्रेम को उत्पन्न नहीं कर सकते, प्रेम को अपना नहीं सकते, क्योंकि यह सब दिमाग के दायरे की चीजें हैं और दिमाग सीमित और सृजित वस्तु है जबकि प्रेम है असीमित और असृजित! प्रेम तो बस होता है- अनंत, अनादि और अनहद!
(प्रस्तुत आलेख 20वीं शताब्दी के सबसे अनोखे विचारक जे. कृष्णमूर्ति के व्याख्यानों में यहां-वहां आए प्रेम के उल्लेखों पर आधारित है। हमने इसे फिलॉसफ़ी ऑफ़ लव नाम दिया।)
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Uday Shankar Singh
इस तरह का लेख एक प्रेम में जी रहा व्यक्ति हीं लिख सकता है। निश्चय हीं आपने अनोखे कृष्नामुर्ती जी के एक एक शब्द को जिया है सिर्फ पढ़ा नहीं, क्योंकि सिर्फ पढ़ने वालों को तो ये बातें बकवास लगती हैं।
srjps
Great!