वृक्ष मानव विश्वेश्वर दत्त सकलानी को हम में से बहुत कम लोग जानते होंगे। वृक्ष मानव विश्वेश्वर दत्त सकलानी को हमें इसलिए जानना चाहिए क्योंकि उन्होंने पर्यावरण के लिहाज से अति संवेदनशील हिमालय क्षेत्र के राज्य उत्तराखंड के एक इलाके में लगभग सौ हेक्टेयर से अधिक बंजर पहाड़ी क्षेत्रफल को स्थानीय पारंपरिक प्रजाति के पेड़ों वाले हरे-भरे स्वर्ग में बदल दिया, वह भी केवल अपने अकेले दम पर। हिमालय में वृक्षारोपण के जरिए किसी एक व्यक्ति के श्रम से विकसित 50 लाख पेड़ों की यह दुनिया उत्तराखंड की राजधानी देहरादून से साठ किलोमीटर उत्तर-पूर्व पौड़ी गढ़वाल जिले के सकलान रेंज में बसे पुजार गांव के पास आबाद है।
विश्वेश्वर दत्त सकलानी का जन्म इसी पुजार गांव में आज से 97 साल पहले 1922 में हुआ था। जरा गौर कीजिए, लोगों का मजबूत लगाव जिसे पैशन कहते हैं, खासकर बच्चों और किशोरों का क्या हो सकता है? पौधा या वृक्ष तो कतई नहीं। सकलानी जी को आठ साल की उम्र में पेड़ों से प्यार था। उम्र के साथ यह प्यार परवान चढ़ता रहा और वे पेड़ लगाते रहे।
बड़े भाई नागेंद्र दत्त सकलानी से बहुत स्नेह रखने वाले विश्वेश्वर दत्त तब बहुत आहत हुए जब टिहरी राज के विरुद्ध आंदोलन करते हुए बड़े भाई शहीद हुए। इसी आंदोलन के बाद टिहरी रियासत को 1948 में भारतीय गणतंत्र में शामिल होना पड़ा। बड़े भाई की मौत ने उन्हें ऐसा झकझोरा कि पेड़ों के प्रति उनका प्रेम एक जुनून में बदल गया। तब उनकी उम्र केवल 26 थी। वृक्षारोपण को उन्होंने अपना मकसद बना लिया।
पहले अपने पुश्तैनी जमीन पर फिर गांव के आस-पास खाली पड़े बंजर जमीनों पर वे पेड़ लगाते रहे। इलाके की हरियाली बढ़ती गई। बांज, बुरांस, काफल, उतीस आदि शिवालिक और मध्य हिमालयी क्षेत्र के मूल स्थानिक वृक्षों से उन्हें खास लगाव था। ओक की हिमालयी प्रजाति बांज तो उन्हें खास तौर पर प्रिय था। उनका मानना था कि बांज वृक्ष जहां रहें वहां पहाड़ी मूमि के गर्भ में पानी टिका रहता है। फॉरेस्ट्री रिसर्च इस बात को सही साबित करता है। मूल रूप से पानी की कमी के कारण बदहाल कृषि की समस्या से टूटे हुए उत्तराखंड का जनमानस शायद समझ लगा है कि पर्वतीय ढलानों के मूल निवासी इन वृक्षों और चीड़ की मिली जुली आबादी की जगह चीड़ के मोनोकल्चर का हाथ इस समस्या को बढ़ाने में कितना है।
बांज के पौधे को पेड़ बनने में अन्य पेड़ों की तुलना में काफी वक्त लगता है और तब तक उसकी देखभाल करनी पड़ती है। विश्वेश्वर जी केवल पौधों लगाते ही नहीं थे बल्कि पौधों के पेड़ बनकर अपने पैरों पर खड़े होने तक उनकी देखभाल भी करते थे। सूखे महीनों में उनकी सिंचाई करना और पशुओं से बचाना इस देखभाल का मुख्य हिस्सा था। यानी, पेड़ लगाने का उनका काम पूरी जिम्मेदारी के साथ होता था। आज भरपूर फंड, संसाधन और तमाम तकनीक से लैस सरकारी वन विभाग भी अपने लगाए हुए पौधों की इतनी मुस्तैदी और अपनेपन के साथ हिफाजत नहीं करता।
लोगों के अनुमान के मुताबिक, सत्तर साल में सैकड़ों हेक्टेयर पहाड़ी ढालों पर उन्होंने 50 लाख से अधिक पेड़ लगाए। यह संख्या हैरान कर देने वाली है। सत्तर साल में 25,000 दिन होते हैं। इस लिहाज से देखा जाए तो उनके द्वारा प्रतिदिन लगाए गए पेड़ों की औसत संख्या 200 बैठती है। आश्चर्य नहीं तो और क्या है! हो सकता है किसी एक व्यक्ति द्वारा दुनिया में कहीं और इतनी बड़ी संख्या में पेड़ न लगाए गए हों! यह खोज का विषय है।
पेड़ लगाने का उनका जुनून इतना जबरदस्त था कि अपनी निजी भूमि और ग्रामीण भूमि को हरा-भरा कर देने के बाद भी वह रुके नहीं। हरियाली या यह अभियान फिर बंजर पड़ी सरकारी वन विभाग की भूमि की ओर बढ़ चला। जिस प्रयास से समाज और सरकार को सीख लेनी चाहिए थी, जिसे आगे बढ़ाना चाहिए था उसी प्रयास को समाज और सरकार के कुतर्कों से भरे मूर्खतापूर्ण प्रतिरोधों का सामना करना पड़ा। सरकारी जमीन पर वृक्ष लगाने के आरोप के साथ उनपर केस दायर किया गया। बाद में अदालत उनके इस तर्क से सहमत हुआ कि पेड़ काटना जुर्म है लगाना नहीं। लेकिन बाद में, 1986 में इन्हें इंदिरा प्रियदर्शिनी वृक्ष मित्र पुरस्कार से नवाजा गया।
गांव के लोगों की नज़रों में वे पागल थे। जब उन्हें लगा कि गांव के लोग पेड़ों से कोई लगाव नहीं रखते तो वे अपने पेड़ों के प्रति और भी अधिक सुरक्षात्मक रवैया अपनाते और लोगों को अपने पेड़ों से दूर हड़काते। इस तरह अपने लगाए पेड़ों को लेकर वह और उनके ग्रामवासी एक दूसरे के आमने-सामने रहे। लोगों की प्रताड़ना, मजाक, और विरोधी रवैये का वह अकेले दम पर सामना करते रहे लेकिन अपने मकसद से नहीं डिगे। बाद में पेड़ लगाने के दौरान दुर्घटनावश उनकी आंखों में चोट लगी और वे देखने की क्षमता करीब-करीब खो बैठे। रुके फिर भी नहीं। अकसर गर्मियों में हिमालय के वनों में आग लगती है।
2011 में उनके वन का भी एक बड़ा हिस्सा ऐसी ही एक आग की चपेट में आ गया। आंखों की रोशनी चले जाने से वह इस बरबादी के दृश्य को देख तो नहीं पाए, लेकिन यह अंदाजा करना हमारे लिए क्या सहज है कि उनका दुःख कम रहा होगा या अंदर की टीस और बढ़ी होगी! कल शुक्रवार, 97 साल की उम्र में इस वृक्ष मानव को दुनिया से विदा ले ली। पैसा, मशीन और रुतबे की उपलब्धि के युग में कैसा लगता है यह सोचकर कि कोई इंसान केवल पेड़ों और हरियाली की दुनिया में जीवन का संपूर्ण आनंद उठा सकता है!
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