मध्य हिमालय में पाए जाने वाले बाँज के पेड़ जैव-विविधता और जल संरक्षण की दिशा में अहम योगदान देते हैं। बाँज (Indian Banjh Oak) हिमालय की चौड़ी पत्तियों वाले वृक्षों में अहम स्थान रखता है, क्योंकि पर्वतों पर जल संरक्षण की दिशा में यह अहम योगदान देता आया है। प्रायः बाँज के जंगलों के इर्द-गिर्द ही पर्वतीय जल स्रोतों-चश्मों, नौलों इत्यादि परंपरागत पेय जल स्रोतों का उद्भव देखा जाता है, क्योंकि इनकी चौड़ी पत्तियों से बने ह्यूमस पर जब बारिश का पानी गिरता है, तो यह पर्वतीय ढाल के बावजूद झटपट नीचे की ओर न ढुलक कर, मृदा-कणों से होते हुए भूमि की गहराई में एकत्र हो जाता है और स्थानीय भूजल स्तर को ऊपर उठाने में मदद करता है। इसकी जड़ें जमीन में गहरे जाती हैं जिससे मृदा अपरदन और भू-कटाव पर रोक लगता है। बाँज पेड़ के आस-पास विभिन्न प्रजातियों की वनस्पतियों को वृद्धि करने में सहायता मिलती है, जिससे पारिस्थितिक जैव-विविधता को भी खूब बढ़ावा मिलता है।
समस्या क्या है?
उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों के किसान परंपरा से लकड़ी से निर्मित हलों का इस्तेमाल करते आ रहे हैं। लकड़ी के ये हल मूलतः बाँज की सख़्त लकड़ी से बनाए जाते रहे हैं, जिससे वे अपने परिवेश में बहुतायत से पाए जाने वाले बाँज के मूल्यवान वृक्षों को काटने के लिए मजबूर थे। नतीजतन इन पेड़ों की तादाद तेजी से कम होती जा रही थी और इससे पर्यावरण संकट पैदा हो चुका था। उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में पानी के पारंपरिक स्रोतों का कम हो जाना या पूरी तरह से सूख जाना इसी से जुड़ी एक समस्या है।
अनूठी पहल
इस संकट से निपटने के लिए अल्मोड़ा के स्याही देवी क्षेत्र में पर्यावरण-जल संरक्षण की दिशा में कार्यरत स्याही देवी विकास समिति की पहल पर अल्मोड़ा स्थित विवेकानंद पर्वतीय कृषि शोध संस्थान ने वर्ष 2011 में एक अनूठी पहल की। इसके तहत उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में खेती के लिए लोहे के बने हलों का डिजाइन विकसित किया गया। महीनों के शोध और डिजाइन फेर-बदल के बाद वर्ष 2014 में इसे अंतिम रूप देकर बाजार में उतारा गया, जिसका नाम रखा गया वी. एल. स्याही लौह हल।
आरंभिक दौर में समिति के लोगों को अल्मोड़ा के आस-पास के इलाकों में गांव-गांव जाकर लोगों को बांज के पेड़ों का पर्यावरणीय महत्व और नए हल के इस्तेमाल के बारे में समझाना पड़ा। धीरे-धीरे इसकी खूबियों, हल्केपन, आसान रखरखाव और साथ ही अपनी बेहतर कार्य क्षमता के कारण विगत वर्षों में किसानों के बीच यह काफी तेजी से लोकप्रिय होने लगा। इस हल की बढ़ती मांग और किसानों की आसान पहुंच को ध्यान में रखते हुए इसका उत्पादन अब स्थानीय स्तर पर शीतलाखेत में ही किया जा रहा है। विगत कुछ वर्षों में हजारों की तादाद में यह हल किसानों में वितरित किए जा चुके हैं। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र के किसान अब इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे हैं और उनके इलाकों में बांज के पेड़ों की कटाई पर काफी हर तक कमी आ चुकी है।
शुरुआती अड़चनों को छोड़ दें, तो स्याही देवी समिति के संस्थापक संयोजक श्री गजेद्र पाठक आज इस हल की बढ़ती मांग से बेहद आशान्वित हैं। उनका मानना है कि जिस तेजी से यह हल किसानों के बीच लोकप्रिय होता जा रहा, उससे अब बाँज के पेड़ों को कटने से बचाने में और जल-संरक्षण की दिशा में काफी मदद मिलेगी।
मझखाली के समीप स्थित द्वारसों गांव के पूर्व ग्राम-प्रधान श्री गोकुल राणा इस हल के मुरीद हैं। वे कहते हैं, “जहां एक ओर लकड़ी के परंपरागत हल के मुकाबले इसकी कीमत काफी कम है, वहीं इसका रखरखाव बेहद आसान है। किसी प्रकार की टूट-फूट होने पर छोटे से लौह पुर्जे को आसानी से बदला जा सकता है। पारंपरिक हल के मुकाबले इसकी कार्य क्षमता भी बेहतर है। फिर पर्यावरण संरक्षण के दिशा में तो यह मदद कर ही रहा है। मैं इस हल का जबर्दस्त प्रशंसक हूं और मैं किसानों को इस बारे में जागरूक भी करता रहता हूं।“
मानव की तेजी से बढ़ती आबादी और प्राकृतिक संसाधनों के ऊपर उनके बढ़ते दबाव से हिमालय का पर्यावरण भी अछूता नहीं रह गया है। ऐसे में हिमालय के पर्यावरण संरक्षण की दिशा में स्याही देवी विकास समिति एवं विवेकानंद पर्वतीय कृषि शोध संस्थान की यह अनूठी पहल वाकई सराहनीय है।
[आलेख : सुमित सिंह, मजखाली, रानीखेत, उत्तराखंड]
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