भारत के दर्शनीय स्थलों में कई स्थल ऐसे हैं जो अनोखा और ऐतिहासिक होते हुए भी लोगों के बीच कम प्रचलित रहे हैं। आइए चलें दक्षिण भारत के एक ऐसे ही अद्भुत स्थल तिरुवन्नमलई की यात्रा पर जो दक्षिण के प्राचीन साहित्य में अति पवित्र माने गए अरुणाचलम पर्वत के चरणों में पूरब दिशा में बसा है। 14 वर्ग किमी में बसा लगभग डेढ़ लाख की आबादी वाला मौजूदा तिरुवन्नमलई शहर तमिलनाडु में इसी नाम के जिले का मुख्यालय भी है। तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई से इसकी दूरी 195 किमी और पुदुच्चेरी से 106 किमी है। दोनों जगहों से यहां तक के लिए नियमित बस सेवाएं उपलब्ध हैं और यहां रेल मार्ग से भी पहुंचा जा सकता है। सालों भर गर्म रहने वाले इस स्थान की यात्रा मौसम और तापमान के लिहाज से नवंबर से फरवरी तक सुखद होती है।
प्राचीन तमिल साहित्य में अरुणाचलम पर्वत को अन्नामलई, अरुणागिरि, सोनगिरि आदि नामों से जाना गया है। तिरुवन्नमलई = तिरु + अन्नामलई, अर्थात ‘श्री अन्नामलई’। अरुणाचलम की मूल महत्ता इस बात से प्रकट होती है कि इसे तमिल परंपरा में ज्ञान के प्रकाश से रोशन पर्वत के रूप में माना गया है। 19वीं शताब्दी के विश्वविख्यात संत रमण महर्षि ने अपनी तपस्थली के रूप में इसी स्थल को चुना। महर्षि रमण भारत के उन महान मनीषियों में शुमार हैं जिन्होंने किसी भी कर्मकांड, चमत्कार या व्यक्तिपूजा आधारित गुरुडम की बजाए विशुद्ध आत्मज्ञान की बातें कहीं और मनुष्य को स्वयं को जानने की ओर प्रेरित किया।
अरुणाचलम पर्वत के पौराणिक महत्व को दर्शाने वाली एक अनुश्रुति इस प्रकार है- एक बार विष्णु देव और ब्रह्मा के बीच अपनी-अपनी श्रेष्ठता को लेकर विवाद हुआ और यह विवाद बढ़ता गया। बढ़ते हुए विवाद और इस कारण सृष्टि और जीव-जगत के ऊपर पड़ रहे दुष्प्रभावों को देख कर भगवान शिव ने दोनों के बीच सुलह कराने के उद्देश्य से खुद को अग्नि स्तंभ के रूप में प्रकट किया और उन दोनों से कहा कि वे उस अग्नि स्तंभ के शीर्ष और आधार का पता लगाएं। ब्रह्मा ने पक्षी का रूप धरकर आकाश में उड़ान भरी और लौटकर झूठ कह दिया कि उन्होंने शीर्ष का पता लगा लिया।
इधर विष्णु अग्नि स्तंभ के आधार का पता लगाने के लिए वराह के रूप में पताल की ओर चल पड़े। लेकिन, बहुत खोजने के बाद भी उन्हें आधार का पता नहीं चला। विष्णु लौटकर आए और अपनी हार स्वीकार कर ली। शिव जानते थे कि ब्रह्मा को अग्नि स्तंभ के शीर्ष पता नहीं चला है लेकिन वह झूठ बोल रहे हैं, इसलिए उन्होंने ब्रह्मा के लिए दंड-स्वरूप यह विधान किया कि पृथ्वी पर कहीं भी उन्हें मंदिर बनाकर नहीं पूजा जाएगा। इसके बाद अग्नि-स्तंभ बने शिव अरुणाचलम पर्वत के रूप में बदल गए और पर्वत के नीचे आधार भाग में पूरब की ओर अग्निलिंगम स्थापित हुआ।
शिव की अग्नि-ज्वाला की स्मृति में नवंबर-दिसंबर महीने में अरुणाचलम पर्वत की ऊंचाई पर पूर्णिमा की रात घी के दीपक जलाकर रोशनी की जाती है। इस त्योहार को ‘कार्तिगई दीपम’ कहा जाता है और इसे दक्षिण भारत के शैव बड़ी गहरी आस्था और श्रद्धा के साथ मनाते हैं। अन्नामलैयार मंदिर को भी दीपों से सजाया जाता है। अरुणाचलम पर्वत के चारों ओर 14 किमी लंबा एक वृत्ताकार मार्ग है जिस पर पैदल चलकर गेरुआ वस्त्रधारी सैकड़ों की संख्या में दक्षिण भारतीय साधु और हजारों श्रद्धालु अरुणाचलम पर्वत की परिक्रमा करते हैं इसे गिरि प्रदक्षिणा अथवा ‘गिरि वलम’ कहा जाता है।
आज तिरुवन्नमलई का महत्व मुख्य रूप से तीन बातों से है- अरुणाचलम पर्वत (ऊं. 814मी.), प्राचीन अन्नामलैयार शिव मंदिर और महर्षि रमण का आश्रम। यहां आने वाले ज्यादातर पर्यटकों में अधिकांश वे साधु-संत और आमजन होते हैं जिनकी अरुणाचलम पर्वत और अन्नामलैयार (अरुणाचलेश्वर) शिव में श्रद्धा होती और वे देशी-विदेशी जिज्ञासु होते हैं जिन्हें महर्षि रमण का जीवन और उनकी शिक्षाएं आकृष्ट करती हैं। ध्यान और आत्मज्ञान की ओर झुकाव रखने वालों को तिरुवन्नमलई जरूर आना चाहिए। रमणाश्रम (महर्षि रमण का आश्रम) ध्यान और शांति को अनुभव करने की अद्भुत स्थली है। अन्नामलैयार शिव मंदिर के प्रांगण में भी आप जहां-तहां एकांत में बैठे भावमग्न साधुओं और बिल्कुल शांतिपूर्वक ध्यान में बैठे आम लोगों को देख सकते हैं।
तिरुवन्नमलई शहर मंदिर को केंद्र मानकर विकसित होने वाले प्राचीन धार्मिक शहर का एक सुंदर उदाहरण है। अरुणाचलम पर्वत की ऊंचाईयों से आप शहर की पूरी बसावट और उसका नक्शा समझ सकते हैं। अन्नामलेश्वर या अरुणाचलेश्वर शिव का मंदिर भारत में अपनी पूर्ण शैलीगत विशेषताओं वाली द्रविड़ या दक्षिण भारतीय शैली का एक विशाल और भव्य शिव मंदिर है। जिन्हें प्राचीन मंदिर स्थापत्य में रुचि हो उन्हें लगभग 25 एकड़ में फैले और आयताकार योजना में बने इस प्राचीन मंदिर को पत्थरों पर की गई शानदार कारीगरी और इसके चार प्रवेशद्वारों पर बने भव्य और विशाल गोपुरमों के लिए देखना चाहिए।
पूर्वी प्रवेशद्वारा पर बना गोपुरम सबसे ऊंचा और भव्य है। ‘राजागोपुरम’ कहलाने वाला यह 11 मंजिला गोपुरम भारत का सबसे ऊंचा प्राचीनतम गोपुरम है जो लगभग 66 मी. (217 फीट) ऊंचा है। यह ऊंचाई किसी औसत ऊंचाई वाली आधुनिक 20 मंजिली इमारत से कम नहीं है। कहने को कर्नाटक के मुरुदेश्वर शिव मंदिर और तमिलनाडु के श्रीरंगम विष्णु मंदिर के गोपुरम क्रमशः प्रहले और दूसरे नंबर के सबसे ऊंचे गोपुरम हैं, लेकिन वे प्राचीन नहीं बल्कि अपेक्षाकृत आधुनिक युग के हैं।
अन्नामलैयार शिव मंदिर दक्षिण के ‘पंच-भूत स्थलों’ में से एक है। पंचभूत स्थल भूमि, जल, अग्नि, आकाश और वायु के प्रतीक-स्वरूप पांच अलग-अलग स्थानों पर स्थापित शिवलिंग हैं। तिरुवन्नमलई के अन्नामलैयार मंदिर में इन्हीं पंचभूतों में से एक अग्नि का प्रतीक शिवलिंग स्थापित है जिसे ‘अग्निलिंगम’ कहा जाता है। दक्षिण भारत में स्थित शेष चार पंच-भूत स्थल इस प्रकार हैं- १.एकम्बरेश्वर, कांचीपुरम (तमिलनाडु) – पृथ्वीलिंगम २.जंबुकेश्वर, तिरुवनैकवल, (तमिलनाडु में तिरुचिरापल्ली के निकट) – अप्पुलिंगम यानी जल का प्रतीक लिंग ३.श्रीकलाहस्ति (आंध्रप्रदेश का चित्तूर जिला) – वायुलिंगम ४.थिल्लई नटराज मंदिर, चिदंबरम (तमिलनाडु) – आकाशलिंगम।
तिरुवन्नमलई शहर और अन्नामलैयार मंदिर का इतिहास कम से कम 12 सौ साल पुराना है। वर्तमान मंदिर का निर्माण 9वीं शताब्दी में चोल शासन काल में हुआ था। लेकिन इसका उल्लेख सातवीं सदी से प्राप्त होने लगता है। सातवीं सदी के संबंदर और अप्पार जैसे प्रसिद्ध नयनार (शैव) संतों ने विख्यात काव्य ग्रंथ थेवरम में इसका उल्लेख किया है।
होयसल राज में तिरुवन्नमलई दिल्ली सल्तनत के दक्षिणी हमलों के प्रतिरोध का भी साक्षी रहा। दिल्ली सल्तनत के मुस्लिम शासक अलाउद्दीन खिलजी द्वारा मदुरई के पांड्य और वारंगल के काकतीय जैसे हिंदू राजवंशों की पराजय के बाद भी होयसल राज्य मुकाबले में डटा रहा। आधुनिक कर्नाटक के हलेबिड स्थित होयसल राजधानी के मुस्लिम हमले में नष्ट हो जाने के बाद तात्कालीन होयसल नरेश वीर बल्लाल तृतीय ने 1328 में तिरुवन्नमलई को केंद्र बनाकर दिल्ली सल्तनत का मुकाबला किया।
मंदिर को विजयनगर साम्राज्य के इतिहास प्रसिद्ध शासक महाराज कृष्णदेव राय की ओर से अनुदान प्राप्त होने के अभिलेखीय साक्ष्य हैं। यहां से कृष्णदेव राय के तमिल, कन्नड़ और संस्कृत के अभिलेख मिले हैं। 17वीं सदी में तिरुवन्नमलई पर कर्नाटक के नवाबों का शासन था जो हैदराबाद की निजामशाही के अधीन थे। इसके बाद इस इलाके पर टीपू सुल्तान का नियंत्रण था। 19वीं सदी से भारत की आजादी तक तिरुवन्नमलई ब्रिटिश प्रभाव के अधीन रहा।
19वीं सदी के आखिरी दिनों से महर्षि रमण से जुड़ कर तिरुवन्नमलई की ख्याति भारत की सीमा से बाहर अंतर्राष्ट्रीय जगत में पहुंची। मदुरै के निकट विरुदनगर निवासी 17 वर्षीय किशोर वेंकटरमण अय्यर ने सितंबर 1896 में तिरुवन्नमलई आकर अपने तपस्वी जीवन की शुरुआत की। आगे चलकर यही वेंकटरमण अय्यर अपने तप, साधना और ज्ञान के बल पर महर्षि रमण के नाम से भारत और विदेशों में प्रसिद्ध हुए।
महर्षि रमण ने अपना संपूर्ण जीवन एक कौपीन या अधोवस्त्र में बिल्कुल न्यूनतम साधनों का उपयोग करते हुए इसी तिरुवन्नमलई स्थित अपनी साधारण कुटिया में बिताया, जबकि उनके पास भारत के साथ-साथ विदेशी जिज्ञासुओं का तांता लगा रहता था। संत के नाम पर आसारामों और रामरहीमों जैसे धनपिपासुओं के इस युग में आधुनिक जमाने के एक असल संत को हम किस रूप में महसूस कर सकते हैं जिन्हें यह जानना हो तो उन्हें महर्षि रमण को जरूर जानना चाहिए!