पढ़ने की आदत जो छूट रही है हमसे, किताबें रह गई हैं बस्ते तक सीमित!
यूं तो परीक्षा पास करने वाले विद्यार्थी के रूप में हम खूब पढ़ते हैं और किताबों का बोझ पहले से अधिक भारी हुआ है, लेकिन पढ़ने की आदत हमारी छूट रही है।
मनुष्य अपने विकास के सबसे निर्णायक सोपान पर तब खड़ा हुआ था जब उसके अंदर पढ़ने की तलब पैदा हुई थी। इसी पढ़ने की तलब ने आदमी को कहां से कहां पहुंचाया।
ज्यों-ज्यों मनुष्य पढ़ता गया उसकी सोच का दायरा और दिमाग की क्षमता बढ़ती गई। धरती पर इतने सारे इजाद न हुए होते अगर आदमी के अंदर पढ़ने का जज्बा न विकसित हुआ होता। पढ़ने की आदत ने मनुष्यता को बेहिसाब फायदे पहुंचाए हैं।
पढ़ने की आदत ही मनुष्य को बाकी प्राणियों से अलग ले जाकर एक खास ऊंचाई पर खड़ा करती है।
दोस्तो, जो पढ़ाई हम परीक्षाओं को पास करने या नौकरी पाने के लिए करते हैं वह हमारी मजबूरी होती है। उसे करते हुए हम किसी उमंग या आनंद से नहीं गुजरते। हम वह पढ़ाई बस एक मकसद को हासिल करने के लिए करते हैं। ज्योंहि वह मकसद पूरा होता है, उससे छुटकारा पाकर हम चैन की सांस लेते हैं।
फिर, कमाने वाला आदमी बनकर एक विचित्र सी जिंदगी में उलझ जाते हैं और मुड़कर किताबों की तरह देखते भी नहीं।
उन किताबों के बारे में सोचित जिनमें हमने वर्षों तक खुद को खपाया था, जो आज घर के किसी कमरे में या कबाड़खाने में किसी ट्रंक में, गत्ते के डब्बे में या आलमारी में पड़ी धूल फांकती हैं। जिस दिन पढ़ाई खत्म हुई थी या आपकी नौकरी लगी थी उसके बाद क्या आपने फिर कभी उनकी ओर मुड़कर भी देखा?
आखिरी बार जब आप उन्हें अपने टेबल, रैक और बिस्तरों से हटाकर किसी कार्टन या ट्रंक में ठूंस रहे थे तब आपको उनसे बिछड़ने का दुःख हुआ था?
नहीं हुआ होगा! क्योंकि हम सब जानते हैं कि हम उन्हें एक मजबूरी की तरह ढो रहे थे। इधर डिग्री मिली या जॉब मिला उधर वह मजबूरी खत्म!
यही होता रहा है अनेक पीढ़ियों से। बस्ते वाली और नौकरी वाली पढ़ाई के बोझ को हमने इतना महत्व दिया कि सुख वाला पढ़ना, मस्ती और उमंग वाला पढ़ना, वो पढ़ना जो एक मजेदार आदत.. एक मस्त कर देने वाली तलब की तरह था, वह हमारे हाथों से छूटकर कहीं गिर गया हमें पता भी नहीं चला!
फिर हम नौकरी करने और रुपए कमाने वाली एक बेकार और बीमार कौम बनकर घटिया दर्जे के जीवन की तमाम क्षुद्रताओं और दुःखों का भार लिए जिए चले जा रहे हैं!
बची हुई कसर इंटरनेट ने आकर पूरी कर दी। इसने न केवल पुराने पढ़ाकुओं की बनी बनाई पढ़ने की आदत को कमजोर किया बल्कि बच्चों में पढ़ने की ललक पैदा होने की उम्मीद भी धुंधली कर दी।
किताबों से आदमी के कटते रिश्ते पर गुलजार साहब ने कितना सही कहा है-
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था कट गया है
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे
……..
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइंदा भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल और
महके हुए रुक्के,
किताबें माँगने गिरने उठाने के बहाने जो बनते थे रिश्ते
अब उन का क्या होगा!
[जाती राब्ता = व्यक्तिगत संबंध]
[रुक्के = चिट्ठी, पुरजा]
धरती पर सारे आविष्कार, नए विचार और ज्ञान-विज्ञान के सभी क्षेत्रों में समाज ने जो कुछ भी हासिल किया है वह उन बुद्धिमान लोगों ने संभव किया जिन्हें पढ़ने की आदत लगी हुई थी।
आप किसी भी महान व्यक्ति की जीवनी उठाकर देखिए, उन सबमें आपको एक कॉमन बात मिलेगी कि वे सब किसी न किसी रूप में पढ़ने की सुखद आदत से ‘लाचार’ थे! किसी ने लकड़हारे का जीवन जीते हुए भी पढ़ने का सुख नहीं छोड़ा, कईयों ने रातों को छुपकर ढिबरी जलाकर किताबों से प्रेम निभाया, तो किसी ने फुटपाथ पर लैंपपोस्ट के रोशनी में खुलेआम किताबों से इश्क फरमाया!
दोस्तो, अच्छी किताबें पढ़ना तितलियों की तरह हवा में उड़ जाने जैसा है… किसी घने वृक्ष की तरह मजबूती से जमीन पर खड़े होकर दूसरों की जिंदगी को उपहारों से भर देने जैसा है।
पढ़ने की आदत न केवल हमारी जिंदगी का दायरा बढ़ाती है बल्कि हमारे अंदर दूसरों की परवाह करने की तमीज भी पैदा करती है!
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