हम सबके अंदर कुछ न कुछ कमी रहती है। हम सब अधूरे हैं। ध्यानपूर्वक हम अपनी कमियों का अवलोकन करें, उन्हें समझें और उनके अनुरूप खुद में बदलाव करें, तो खामियों को भी खूबियों में बदला जा सकता है। यह प्रेरक लघु कहानी : रिसने वाला घड़ा जीवन के इसी पाठ को सुंदर तरीके से प्रस्तुत करती है।
एक बूढ़ी औरत रोज नदी से दो घड़े पानी ढोकर लाती थी। एक घड़ा सही-सलामत था लेकिन दूसरे में छेद था। औरत दोनों घड़े को पूरा भरती, लेकिन छेद वाले घड़े का आधा पानी रास्ते में ही रिस जाता। हर दिन ऐसा ही होता। औरत दो घड़े भरकर पानी उठाती लेकिन नदी से लंबा रास्ता तय कर घर तक पहुंचता था केवल डेढ़ घड़ा पानी।
छेद वाले घड़े को अपने इस अधूरेपन पर बहुत पश्चाताप होता। उसे यह सोचकर शर्मिंदगी होती कि वह अपनी क्षमता का केवल आधा ही काम कर पाता है। उसे लगता औरत को उससे जितनी सेवा मिलनी चाहिए उतनी वह नहीं दे पाता। अपनी अपूर्णता को सोचकर वह हमेशा दुःखी रहता। जबकि, दूसरा घड़ा हमेशा अपनी पूर्णता पर गर्व करता।
दो साल तक ऐसा ही चलता रहा। औरत ने न कभी छेद वाले घड़े को बदलने की सोची और न ही कभी उसे आधा ही भरा। घड़े को लगता औरत अनजाने में कितना नुकसान उठाती है। एक दिन, उससे रहा नहीं गया। उसने औरत से कहा, ‘मैं बहुत शर्मिंदा हूं। तुम्हें पता भी नहीं दो साल से तुम्हारी चौथाई मिहनत रास्ते में बेकार जाती है। मैं एक फूटा घड़ा हूं। तुम मुझे बदलकर दूसरा पूर्ण घट क्यों नहीं ले लेतीं?’
बूढ़ी ने कहा, ‘दुःखी मत हो प्यारे घड़े। नदी से घर तक कभी तुमने पगडंडी के अपने वाले किनारे पर उगे फूल नहीं देखे? जिसे तुम अपनी कमी मानते हो यह चमत्कार उसी से तो हुआ। मुझे तुम्हारे रिसने का पता तो शुरू से ही था। इसलिए मैंने पगडंडी के एक किनारे यहां से वहां तक फूलों के बीज बो दिए और तुम्हें हमेशा उसी ओर रख कर लाती रही।
तुम्हारे छेद से जो पानी रिसता उससे फूल सिंचते रहे। दो साल से तुम्हारे पानी के सिंचे फूल ही तो घर लाती हूं। नदी से घर तक फूलों की यह सुंदरता तुम्हारे पानी से ही तो है।’
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