पर्यावरण की रक्षा तब तक कैसी हो सकती है जब तक प्रकृति का विनाश आम आदमी की चिंताओं का विषय नहीं बनता?
प्रकृति का विनाश कितना हुआ है इसका अनुमान इन छोटी बानगियों से लगा लीजिए-
समुद्र किनारे बसा चेन्नई महानगर बूंद-बूंद पानी को तरस रहा है। शहर को पानी की सप्लाई देने वाली झीलें सूख चुकी हैं।
महाराष्ट्र में हर साल पिछले साल की तुलना में टैंकरों की मांग बढ़ जाती है और गर्मियों में लोग 50 फीट गहरे कुएं की तली में कीचड़ और तलछट में बचा हुआ पानी बाल्टियों में जमा करने के लिए जान की बाजी लगाकर रस्सियों से उतरते हैं।
बिहार में टेंप्रेचर इतना बढ़ जाता है कि अचानक दर्जनों लोग लू से मर जाते हैं। जहां कभी हाथ से खोदे गड्ढों में पानी निकल आता था वहां पीने के लिए लिए पानी बाहर से मंगाना पड़ जाता है।
हिमालय के सैकड़ों गांवों को उनमें रहने वाले लोग खाली कर चले जाते हैं, क्योंकि जलस्रोत लगातार कम होते होते आखिरकार सूख गए। न पीने लायक पानी बचा, न जानवरों को पिलाने लायक और ही न ही खेतों को सींचने लायक। अकेले उत्तराखंड में पिछले सात साल में 600 से अधिक गांव पूर्ण पलायन के शिकार हुए।
संपूर्ण मैदानी उत्तर भारत असामान्य रूप से बढ़ी गर्मी से चकरा उठता है और लाखों की तादाद में लोग हर दिन पड़ोसी हिमालयी राज्यों में ठुंस कर वहां की व्यवस्था को ठप कर देते हैं।
एक दशक से भी कम समय में देश भर में दर्जनों छोटी नदियां सूख गईं। हिमालय के ग्लेशियर कुछ तो पिघलकर खत्म हो गए, कुछ लगातर खत्म होने की ओर बढ़ रहे हैं।
केमिकल खाद, कीटनाशक दवाओं और हाइब्रिड बीज के सहारे होने वाली खेती की बदौलत समृद्धि के शिखर पर पहुंचने वाले पंजाब में कैंसर रोगियों की तादाद इतनी बढ़ जाती है कि उन्हें बीकानेर के कैंसर अस्पताल लाने ले जाने के लिए ‘कैंसर स्पेशल’ ट्रेन चलानी पड़ती है।
बात केवल इन स्थूल संकेतों तक सीमित नहीं है। मनुष्य आज पहले के किसी भी समय की तुलना में मानसिक विकृतियों, दुश्चिंताओं और मानसिक उथल-पुथल का भयानक रूप से शिकार हो चला है। यदि इस मामले में तुलनात्मक अध्ययन कराना संभव हो तो आंकड़ों में पता चले कि आज का मानव-मस्तिष्क किस तरह धीरे-धीरे नकारात्मक मनोवृत्तियों का विस्फोटक भंडार बनता जा रहा है।
ऐसा क्यों है?
…क्योंकि, मनुष्य प्रकृति से कट रहा है और विनाश की ओर बढ़ रही प्रकृति के कारण वातावरण में स्थूल और सूक्ष्म स्तरों पर ऐसे कारक पैदा हो रहे हैं जो धरती पर जीवन को आगे बढ़ाने वाली अनुकूल व्यवस्था और मनुष्य के मनोविज्ञान ढांचे को नकारात्मक तरीके से प्रभावित करते हैं।
प्रकृति का विनाश इस वक्त धरती के इतिहास के सबसे दुःखद और डरावने दौर में प्रवेश कर गया है। आम आदमी अपने रोजमर्रा के जीवन में इतना उलझा हुआ है कि उसमें प्रकृति को लेकर न कोई वेदना बची है, न संवेदना। नौकरी पाने, कमाने-खाने-खरीदने, बीमार पड़ने और फिर इलाज कराने और अपडेट स्टेटस मेनटेन करने के कुचक्र में मध्यमवर्ग इस तरह जकड़ा हुआ है कि प्रकृति से उनका नाता ही टूट गया समझिए। अंग्रेजी शिक्षा से लैस उच्च वर्ग प्रकृति के बारे में लगातार चिंता करते हुए दिखाई पड़ते हैं, लेकिन वे भी ‘Go Green’ के नारे से आगे नहीं बढ़ पाते।
अपने निजी परिवार और समाजिक सिस्टम को लेकर बड़ा सतर्क और संवेदनशील रहने वाला प्राणी है मनुष्य। लेकिन उससे एक अक्षम्य भूल हो रही है कि उसने जीवन को केवल घरेलू-सामाजिक संबंधों और बाजार के दायरे में बंद कर दिया और भूल गया कि जीवन दरअसल कुदरत की पैदाइश है। आदमी के अपने बनाए हुए संबंधों के सामाजिक ताने-बाने और बाजार ने जीवन के साथ छेड़-छाड़ कर आदमी को यह भ्रम दिलाया है कि उसका पोषण इन्हीं से होता है। जबकि, सच यह है कि हमारा जीवन ही नहीं, समाज और बाजार भी आखिरकार प्रकृति और केवल प्रकृति पर आश्रित हैं।
हमारे जीने की हर अनिवार्य जरूरत प्रकृति ही पूरी करती है। अन्य जरूरतें जो हम देश-काल की चलन के मुताबिक या अपनी सुविधा के लिए चाहते हैं, उनका भी स्रोत अप्रत्यक्ष रूप से प्रकृति ही होती है। जो प्रकृति हम सब की माओं की मां है, जिसके कोख से निकलकर धरती पर जीवन का विस्तार हुआ और जो हमारे जीवन को जिंदा रखने में इतनी तरहों से शामिल है उसके बारे में लोग इतना अनजान कैसे बन जाते हैं, सोच कर ताज्जुब होता है। मुझे तो लगता है आदमी की दुनिया का यही सबसे बड़ा आश्चर्य है।
एक आदमी को दूसरे आदमी से भेजा हुआ उपहार मिलता है और वह खुश हो जाता है। डॉक्टर दवा से हमारी इलाज कर देता है हम उसके शुक्रगुजार होते हैं। कोई हमारी किसी भी रूप में मदद करे तो हम स्वाभाविक रूप से उसके कृतज्ञ हो जाते हैं, लेकिन प्रकृति के लिए ऐसा कोई भाव आम आदमी के अंदर क्यों नहीं आता?
पेड़ सारा जीवन हमारा पोषण करता है। बच्चे स्कूलों में पेड़ पर निबंध लिखते हैं। उनके पास तमाम जानकारियां होती हैं कि कैसे पेड़ से ऑक्सीजन मिलता है, फल मिलता है, छाया मिलती है, बारिश होती है.. फिर भी उनमें पेड़-पौधों को लेकर कोई भावनात्मक लगाव नहीं होता।
बड़ा होकर, पेड़ पर निबंध लिखने वाला वही बच्चा राजनेता, अधिकारी या इंजीनियर बनकर लापरवाह तरीके से बेधड़क पेड़ काटकर सड़कें, बिल्डिंग, मॉल, हवाईअड्ड़ा और औद्योगिक क्षेत्र बनवाकर नाम कमाता है और कभी ऐसे विकल्पों पर सोचने की मिहनत नहीं करता जिससे यह सब कुछ बिना पेड़ काटे या कम से कम पेड़ काटे हो सके।
अपने आस-पास नजर दौड़ाइए (हो सके तो एक नजर खुद पर भी डालिए) 24 घंटे में कितनी बार आपको प्रकृति से अपने अनिवार्य रूप से जुड़े होने का अहसास होता है? कितनी बार आपके मन में यह खयाल आया है कि आपका यह शरीर बूंद-बूंद पानी, कण-कण मिट्टी और कतरा-कतरा हवा से मिलकर बना है। वह हर चीज जो मां के पेट से लेकर आज तक आपके शरीर का पोषण करती है प्रकृति के अक्षय भंडार से आई हुई होती है।
हवा, पानी और भोजन से आपका शरीर बना है जो किसी फैक्ट्री में नहीं बनते। सीधे प्रकृति से आते हैं। इस तरह प्रकृति आपके शरीर में समाई हुई है। हमारे शरीर में ऐसा कुछ भी नहीं है जो प्रकृति के अलावा कहीं और से आया हो।
तो बताइए कितनी बार आपके साथ ऐसा होता है कि आप घर से बाहर निकल कर दफ्तर, शॉपिंग मॉल, जिम या सामाजिक आयोजनों में जाने की बजाए प्रकृति की खुली गोद में, आस-पास के जंगल, बगीचे, नदियों के किनारे या किसी पुराने उजड़े हुए फार्म हाउस के चारों ओर उगे जंगल में जाने को बेचैन हो जाते हैं!
क्या ऐसा होता है कि आप सुबह उठते हैं और फ्रेश होकर आपका मन सीधा किसी पार्क या खुली प्रकृति में घास पर नंगे पांव चलने, उगते सूरज को निहारने, घोंसलों से निकलते चिड़ियों की चहक सुनने और ओस से भींगे पंख लिए झाड़ियों में सुस्त पड़ी तितलियों के पास जाने का करता है? नहीं न? तो करना चाहिए।
केवल लेख लिखकर, सेमिनार आयोजित कर, सूखा पड़े इलाके में पानी के टैंकर भेज कर, और यहां-वहां से कुछ प्लास्टिक के कचरे उठाकर फोटो खिंचाकर प्रकृति का विनाश नहीं रोका जा सकता। प्रकृति के लिए हमको, आपको भावुक होना पड़ेगा। प्रकृति को अपनी आत्मा से महसूस करना होगा, अपने देह की हर कोशिका में महसूस करना होगा।
आप माता पिता हैं तो अपने बच्चों को लेकर रोज प्रकृति में जाने का वक्त निकालिए। उन्हें न केवल प्रकृति के विज्ञान से रू-ब-रू कराइए बल्कि उनकी भावनाओं में प्रकृति के प्रवेश करने का द्वार बनाइए। जितना हो सके ज्यादा-ज्यादा से वक्त ‘आउट-डोर’ बिताइए। अपने आस-पास जहां संभव हो पेड़ उगाइए, अपने परिचितों को ऐसा करने के लिए प्रेरित कीजिए, लोगों से मिलने पर बात-चीत का रुख ऐसे मुद्दे की ओर मोड़ने की कोशिश कीजिए जिनमें प्रकृति की बात हो।
पानी की बचत कीजिए। आपके पास घर है तो छत पर गिरने वाले वर्षा-जल को संचित करने के उपायों को जानिए और उसे अपनाइए। अगर आप किसान हैं, आपके पास जमीनें हैं तो तालाब खोदिए और उनमें वर्षा का पानी इकट्ठा रखिए। सिंचाई के वैसे विकल्प अपनाइए जिनमें कम पानी की जरूरत हो।
अपने रोजमर्रा के जीवन को मिसाल बनाइए। जीवन में इस्तेमाल होने वाली उन चीजों की लिस्ट बनाइए जिनके प्राकृतिक विकल्प हैं फिर उन्हें धीरे-धीरे रिप्लेस कीजिए। जिन चीजों को घर में मौजूद चीजों से तैयार किया जा सकता है उन्हें सीधे बाजार से खरीदने की प्रवृत्ति का त्याग कीजिए।
कुल मिलाकर हमें ऐसा रवैया तैयार करना होगा ताकि हमारे जीने की प्रक्रिया में उठने वाले हर कदम के साथ प्रकृति की परवाह शामिल हो और प्रकृति के प्रति हमारे अंदर समझदारी भरा प्रेम विकसित हो। अन्यथा, वह दिन दूर नहीं जब धरती पर जीवन के विनाश का विवरण लिखने वाला भी कोई नहीं होगा!