मानव के तथा-कथित विकास की धारा ने हमारी बहुत-सारी पारंपरिक वस्तुओं, खान-पान, उपयोगी परंपराओं और पद्धतियों को हाशिए पर धकेल दिया है। इसकी फ़ेहरिस्त लंबी है। मड़ुआ (रागी) अनाज भी उन्हीं में से एक है, जिसकी खेती और इस्तेमाल अब भारत के कुछ ही इलाकों तक सिमट कर रह गई है।
मड़ुआ (रागी): हरित क्रांति की लहर में खोया-सा एक गुमनाम अनाज
मड़ुआ (रागी) : एक परिचय
मड़ुआ (रागी) की खेती मुख्यतः भारत और अफ्रीका के कुछ हिस्सों में की जाती है। भारत में मड़ुआ की खेती सबसे ज्यादा कर्नाटक में की जाती है, यहां इसे रागी के नाम से जाना जाता है और आज भी इसके कई व्यंजन मुख्य आहार के रूप में इस्तेमाल में लाए जाते हैं। उसके बाद महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, उड़ीसा, उत्तराखंड का नम्बर आता है। हमारे देश में इसे कई नामों से जाना जाता है। दक्षिण भारत में इसे रागी के नाम से जाना जाता है, तो महाराष्ट्र में नाचणी के नाम से, उत्तर भारत और उत्तराखंड में इसे मड़ुआ के रूप में जाना जाता है, हिमाचल में इसे लोग कोदरा के नाम से जानते हैं। अंग्रेजी में इसे Finger Millet कहते हैं।
मड़ुवे को एक ऑर्गैनिक अनाज माना जा सकता है, क्योंकि इसकी खेती में रासायनिक उर्वरकों की जरूरत नहीं पड़ती। इसमें कीड़े नहीं लगते इसलिए फ़सल रूप में और कटाई के बाद के भंडारण में कीटनाशक और पीड़कनाशकों का इस्तेमाल नहीं किया जाता है। साथ ही यह कम पानी वाली जमीन में भी मजे से उग सकता है। और मजे की बात यह है कि इसमें जल-जमाव को झेलने की भी क्षमता मौजूद होती है इसलिए इसे पानी लगने वाले खेतों में भी उपजाया जा सकता है।
हिमालय प्रवास में मड़ुआ (रागी) को लेकर मेरे प्रत्यक्ष अनुभव...
पिछले सवा साल के उत्तराखंड प्रवास के दौरान मैंने मड़ुवा (रागी) का शरीर के ऊपर पड़ने वाले प्रभावों का बारीकी से अध्ययन किया, जिसमें मैंने पाया कि यह दांतों, हड्डियों, बालों के पोषण के लिए चमत्कारी रूप से प्रभावी है ही, साथ ही साथ अपनी अल्प वसा और कम कार्बोहाइड्रेट की वजह से यह आपके शरीर के वजन को नियंत्रित रखने में भी सहायक है।
चूंकि यह ग्लूटेन मुक्त अनाज है, इसलिए इसके खाने के बाद इसका पाचन बड़ी सरलता से हो जाता है। गेहूं की तरह इसमें गैस बनने का गुण नहीं होता। इसे खाने के बाद आपको इतना पोषण मिल जाता है कि इसके पच जाने के बाद भी आपको जल्दी भूख नहीं लगती।
मड़ुआ/रागी में मौजूद ज्ञात पोषक तत्त्वों की बात करें तो इसे चमत्कारिक अनाज कहना गलत नहीं होगा। गेहूं की तुलना में इसमें प्रचुर मात्रा में कैल्शियम पाई जाती है। इसके अलावा इसमें पोटाशियम, आयरन और अन्य खनिज तत्त्व भी अच्छी मात्रा में पाए जाते हैं, जो आपके हड्डियों, दांतों, बालों इत्यादि की सेहत के लिए अत्यंत सहायक होते हैं। फ़ाइबर की भरपूर मात्रा के अलावा इसमें कई एंटीऑक्सिडेंट भी पाए जाते हैं, जो आपके शरीर को विषमुक्त करने में अहम भूमिका निभाते हैं। आपके रक्त में पोटैशियम की मात्रा को बनाए रखकर यह रक्तचाप और हृदय से जुड़े विकारों को दूर रखता है।
नियमित मड़ुवा खाने से आपके शरीर का स्वास्थ्य तो ठीक होगा ही साथ ही आपके मन भी प्रसन्नता और उत्साह से भरा रहेगा। हताशा, अवसाद इत्यादि वाले मनोरोगियों के लिए भी मड़ुआ कमाल का आहार होता है। शोधों से पता चलता है कि इसके नियमित सेवन से ऐसे रोगों पर काफी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
अब जरा आंंकड़ों और विवरणों से बाहर निकल कर मैं ‘देहाती’ से दिखने वाले इस मोटे अनाज के चमत्कारी गुणों को लेकर अपना अनुभव साझा करता हूं। जब मैं अपनी आजीविका के सिलसिले में मुम्बई में प्रवास कर रहा था, तो पहले-पहल मड़ुआ/रागी से परिचय वहीं हुआ। मेरी पत्नी महाराष्ट्रियन हैं और उन्होंने घर में ज्वार-बाजरा और मड़ुआ का आटा लाना शुरु किया। उस समय तक मैं इसे केवल भूले-बिसरे, स्वादहीन किंतु पौष्टिक अनाज के रूप में देखता था, क्योंकि मुझे इसके प्रत्यक्ष गुण देखने को नहीं मिले थे।
फिर बेंगलूरु बसने (आजकल बसने का अर्थ ईंट-सीमेंट से बने एक अदद मकान को जैसे-तैसे खरीदकर उसमें मय-सामान ठुंस जाना ही तो है) के बाद जब दक्षिण भारतीय मित्रों के घरों में धड़ल्ले से रागी के बने व्यंजन खाने को मिले तो मेरा इसके साथ का परिचय जरा और सघन हो गया। और जब मैंने यहां के बुजुर्गों और महिलाओं की सेहत और स्वास्थ्य पर गौर किया तो इस अनाज के प्रति मेरे मन में गहरी आस्था जग उठी….पर फिर भी यह मेरे मुख्य आहार में शामिल नहीं हो सका।
पारंपरिक जीवन-शैली और खान-पान के ऊपर मेरा पहला व्यावहारिक-शोध हुआ हिमालय के शुद्ध, शांत, सुंदर और आध्यात्मिक परिवेश में। दरअसल वर्ष 2018 में अचानक ही हम (मैं और बड़े भाई) हिमालय की यात्रा पर निकल पड़े। इस यात्रा का उद्देश्य हिमालय के आध्यात्मिक परिवेश, पारंपरिक खान-पान, लोक संस्कृति, सिद्ध स्थलों के बारे में फर्स्ट हैंड जानकारी और अनुभव हासिल करना और शहरों-महानगरों का हमारे दिलो-दिमाग पर पड़ने वाले बुरे असर को खुरच कर साफ करने का प्रयास करना था।
यात्रा-भ्रमण के लिए हमने हिमालय के कुमाऊं मंडल को चुना। इस क्षेत्र के हरे-भरे पहाड़ों, उनमें फंसे हुए मकानों और बस्तियों में कई महीने हम यहां-वहां भटकते रहे। लोगों से मिलते, उनके साथ खाते, स्रोतों और नौलों का शीतल और मीठा पानी पीते, उनके घरों खेतों में जाकर घंटों समय गुजारा करते, ताजा छाछ और मक्खन का आनंद उठाते।
बड़े भाई पक्षियों की फ़ोटोग्राफी में गहरी दिलचस्पी रखते हैं इसलिए कुमाऊं क्षेत्र में पाए जाने वाले पक्षियों की तलाश में हमने न जाने कितने गधेरों-खालों और जंगलों की खाक छानी। रात हो जाती तो कभी किसी होटल में टिक जाते तो कभी किसी मंदिर-आश्रम जैसे स्थानों में अपनी बिस्तर फैला देते। इन सभी गतिविधियों के दौरान हम दिन भर में 10-10 कि.मी तक पैदल चल लेते थे।
पर आखिरकार जेब से फिसलते पैसे की रफ़्तार पर लगाम लगाने के लिहाज से हमने रानीखेत-मजखाली के समीप एक गुमनाम से अधनींदे गांव, द्वारसों में एक घर किराए पर ले लिया। यह घर क्या था, समझिए कि तीन कमरों का महीनों से खाली पड़ा एक सूना सा मकान था, जो पहाड़ों की ढाल पर बने खेतों के बीचोबीच खड़ा था।
जहां रहते-रहते बाद में हमें पता चला कि एक तेंदुआ को हमारे आने की भनक लग गई थी और वह आधी रात के बाद के सर्द सन्नाटे में हमारे बरामदे के सामने की सब्जियों के खेत में घात लगाकर बैठा रहता और उजाला होने से कुछ घंटे पहले हाथ मलता हुआ वापस लौट जाता था। यह उसका तकरीबन रोज का शगल था। बहरहाल…घनघोर प्रकृति के बीच रहकर उसी घर में हमने मड़ुए, राई, मूली, बींस, सरसों, लंबे कद्दू इत्यादि पहाड़ी सब्जियों की खेती देखी और लगभग मुफ़्त उन सभी पर बड़ी बेरहमी से हाथ आजमाया।
यहां हमें लोगों के मुंह से मड़वा/रागी अनाज की खूब तारीफ़ सुनने को मिली। कई बार हमने यहां के घरों में गाय के घी के साथ मड़वे की रोटी, भट्ट के डुबके और स्वादिष्ट रायते और आलू के गुटके पर हाथ आज़माया। धीरे-धीरे ये जायके हमारे दिल में उतरने लगे और फिर एक-दो हफ्ते के बाद हमने गेहूं छोड़ मड़ुए को अपना मुख्य आहार बनाने का फ़ैसला किया। आस-पास के लोगों से यह आसानी से उपलब्ध हो गया। हम तो चले ही थे हिमालय के पारंपरिक, विषमुक्त खान-पान का प्रभाव देखने, सो इस दिशा में यह फ़ैसला हमारा पहला मील का पत्थर था।
अब देखिए मानव शरीर के ऊपर काले मड़ुए का क्या-क्या असर पड़ सकता है, जो मैं अपने प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर प्रस्तुत कर रहा हूं।
1.दांतों पर असर
दरअसल, बेंगलूरु में कई महीने से मेरे दांत में पानी और मीठे पदार्थ लगने शुरु हो गए थे। कनकनाहट हद से ज्यादा बढ़ने पर पास के ही एक दंत चिकित्सक (महिला) के पास पहुंचा। अपनी मीठी आवाज में उसने खूब डराया। कहा- ‘आपके क्राउन ढीले हो गए हैं, मसूड़े ने उनका साथ छोड़ दिया है…इनैमल उड़ गए हैं और दातों की सतह नंगी हो गई है। एक-दो दांतों को निकालना होगा, कुछ को भरना होगा…फ्लॉस करवाइए…सब ठीक हो जाएगा, वर्ना…!’
कई हजार का खर्च बताया गया…बस मैं अगले दिन वापस आने को कह कर वहां से खिसक लिया। पर कुछ ही महीने के बाद उत्तराखंड प्रवास के दौरान जब हमने लगभग चार हफ्ते तक खालिस मड़वे की रोटी का सेवन किया तो एक दिन अचानक मेरा ध्यान अपने दांत की ओर गया। हैरानी की बात यह थी कि दांतों की कनकनाहट जा चुकी थी।
नवम्बर के दिन थे…हमारे घर में हीटर-गीजर थी नहीं, इसलिए कई बार खुले स्रोत का हद से ज्यादा सर्द पानी पीना पड़ता था, पर दांतों की असहजता खत्म हो चुकी थी। चूंकि हम जो भी आहार ले रहे थे उनमें कैल्शियम युक्त मुख्य आहार मड़ुआ ही था, हमने निष्कर्ष निकाला कि दांतों पर यह जबर्दस्त प्रभाव मुख्य रूप से मड़ुवे का ही हो सकता है।
हम कुछ ज्यादा ही उत्साह से भर उठे…और अपनी रसोई से चीनी हटा दी और गुड़ पर उतर आए। ग्रीन-टी और तुलसी की चाय, वह भी खालिस गुड़ में। गुड़ की खीर खाते, मड़ुए की काली रोटी गुड़ में लपेट कर हजम कर जाते थे। यानी चीनी की जानलेवा चमक से तौबा कर हम गुड़ की मिठास में घुलने लगे। डब्बा और पैकेट बंद आहार लगभग बंद ही कर दिया।
2.घुटने का दर्द गायब
अचानक एक दिन सर (बड़े भाई को हम सर कहकर बुलाते हैं) ने कहा- ‘अरे, मेरे घुटने का दर्द गायब हो गया है। कैल्शियम की गोलियां खाए तो कई महीने बीत चुके हैं, तब तो ख़ास सुधार न था। हो न हो यह भी मड़ुए का ही कमाल है।‘
3.बालों की झड़न पर रोक
फिर मैंने मड़ुवे में मौजूद पोषक तत्त्वों पर जानकारी जुटानी शुरु कर दी। और जो आंकड़े मुझे मिले वे हैरान कर देने वाले थे। पर कई लाभों के बीच मैं यहां मड़ुवे के केवल मुख्य पोषण तत्त्वों और स्वास्थ्य पर उनके प्रभावों की ही जानकारी प्रस्तुत कर रहा हूं।
क्यों है मड़ुआ चमत्कारी आहार: आइए एक नजर डालते हैं मडुआ/रागी के पोषक तत्त्वों पर
1.कैल्सियम की प्रचुरता
सबसे पहले बात कैल्शियम की, जिसमें यह अनाज तमाम खाद्यान्नों को बहुत पीछे छोड़ देता है। मड़ुआ में कैल्शियम (350 मिग्रा) की मात्रा इतनी ज्यादा होती है जितनी किसी भी अनाज या शाकाहारी आहार में नहीं होती। जबकि गेहूं जैसे लोकप्रिय अनाज में यह लगभग 30 मिग्रा ही है, यानी मड़ुवे में कैल्शियम की मात्रा गेहूं से तकरीबन 10-12 गुना अधिक है। जाहिर है कैल्शियम की प्रचुर मात्रा के कारण यह बच्चों की हड्डियों के विकास और बड़े-बूढ़ों में कैल्शियम की कमी को दूर करता है। मड़ुए के नियमित सेवन से हड्डियों के साथ दांत मजबूत बने रहते हैं। दांतों में होने वाले किसी प्रकार के क्षरण को रोककर यह चमत्कारी अनाज आपके दांतों को दुरुस्त बनाए रखता है।
2.पोटैशियम और आयरन
कैल्शियम के साथ-साथ मड़ुए में पोटैशियम और आयरन की भी अच्छी मात्रा पाई जाती है, जो आपके शरीर में लौह तत्त्व की कमी होने से रोकता है। इस अनाज के नियमित सेवन से गर्भवती महिलाओं में एनीमिया से बचाव होता है।
3.ग्लुटेन रहित प्रोटीन
भले ही प्रोटीन की मात्रा गेहूं और मड़ुए में समान अनुपात में मौजूद हो, पर मड़ुए के प्रोटीन में ग्लुटेन (Gluten) नामक विषैला तत्त्व नहीं होता (जबकि गेहूं में यह मौजूद है)। जिस कारण इसकी रोटी या इससे निर्मित अन्य व्यंजन खाने से पेट भारी नहीं होता।
4.सीमित वसा
मड़ुए में प्राकृतिक वसा तत्त्व की मात्रा बाकी सभी अनाजों से कम होती है, इसलिए यह आपके शरीर के वजन को संतुलित रखने में कारगर होता है।
5.एंटी-ऑक्सीडेंट्स की प्रचुरता
अध्ययन और शोधों से यह सिद्ध हो चुका है कि मड़ुए में कई प्रकार के एंटी-ऑक्सीडेंट भी पाए जाते हैं। ये ऑक्सीडेंट्स आपके शरीर में मेटाबॉलिज्म (उपापचय) से पैदा होने वाले विषैले तत्त्वों की सफाई करते हैं और कैंसर, अल्सर और अन्य प्रकार के खतरनाक विकार होने पर रोक लगाते हैं। नियमित रूप से मड़ुए के सेवन से आपका असमय बुढ़ापा रुकता है और आपकी त्वचा निखरी रहती है।
6.भरपूर फाइबर
एक तथ्य और भी जान लीजिए कि मड़ुए में गेहूं और चावल की तुलना में कहीं अधिक रेशे पाए जाते हैं, जो आपके पाचन को दुरुस्त बनाते हैं। पाचन तंत्र की सक्रियता के कारण आपमें डायबिटीज होने की संभावना नगन्य हो जाती है।
7.शरीर को रखे हल्का और विषमुक्त
शरीर को हल्का और विषमुक्त बनाए रखने के गुण के कारण मड़ुए के आहार से आपका मन में उत्साह का संचार होता है। शोधों के नतीजे बताते हैं कि अवसाद या अन्य मनोविकार वाले लोगों में मड़ुए के सेवन से काफी लाभ मिलता है।
अब जरा सोचिए कि इतने लाभों से भरे हुए मड़ुए को हम क्यों भूलते गए और उसके स्थान पर ज्यादातर कीटनाशकों और रासायनिक दवाईयों से भरे गेहूं और चावल का इस्तेमाल करने लगे? यह इसलिए कि 60 के दशक में चलने वाले हरित क्रांति अभियान ने अपना सारा बोझ केवल और केवल गेहूं पर डाल दिया था।
देश में गेहूं के उन्नत बीज बनाए गए, ज्यादा उपज पाने के लिए भांति-भांति के रासायनिक-जहरीले कीटनाशकों का इस्तेमाल शुरु किया गया। किसानों को जम कर रासायनिक उर्वरक बांटे गए और बड़ी बेरहमी से उन्हें मिट्टी में डाला गया। गेहूं के दानों को अधिक दिनों तक भंडारित करने के लिए तमाम तरह के रासायनिक उपाय किए गए और कुछ ही दशकों में गेहूं देश के घर-घर में पहुंच गया और साथ ही साथ लोगों की सेहत में भी घुन लगना शुरु हो गया।
इसकी बानगी भी मुझे उत्तराखंड प्रवास के दौरान ही देखने को मिल गई जहां अक्सर मुझे हड्ड़ियों-जोड़ों की समस्या के शिकार बड़े-बुजुर्ग या युवा भी मिल जाते थे। हमें पता था कि उत्तराखंड के लोगों का खान-पान आज भी शुद्ध और विषमुक्त है और मड़ुआ उनका एक मुख्य आहार है, इसलिए उनमें दिखने वाली हड्डियों की समस्या ने हमें जरा हैरान किया। जबकि हमें दक्षिण भारत के लोगों में यह समस्या देखने को नहीं मिलती थी।
हमने दक्षिण भारत में 70-75 साल के बुजुर्गों को फर्राटे से मोपेड चलाते या खेतों में काम करते खूब देखा था। सफेद झक्क बालों वाला दुबला सा बुजुर्ग यदि झुक कर न चलता हो और सीधा तनकर खड़ा होता हो तो जाहिर है आपकी निगाह एक बारगी उनपर जरूर ठहर जाती है। यानी दक्षिण भारत के लोगों में हड्डियों की प्रत्यक्ष समस्या हमें देखने को नहीं मिलती है। प्राकृतिक खान-पान और परंपराओं से जुड़ाव समेत इसका एक मुख्य कारण मड़ुवे का भरपूर सेवन करना है। ‘रागी मुंदे’ (मड़ुए के आटे की लोई को पानी में उबाल कर खाया जाने वाला दक्षिण भारत का एक लोकप्रिय व्यंजन) उनका मुख्य आहार है।
तो फिर क्यों भूल गए हम मड़ुए को?
पर जब हमने उत्तराखंड के लोगों के खान-पान पर गौर करना शुरु किया तो पाया कि अब यहां के ज्यादातर घरों में गेहूं की चिकनी-मीठे स्वाद वाली रोटी चलन में आ गई है और लोग मड़ुए की काली रोटी न खाकर गेहूं के आटे में लोई में मामूली मात्रा में मड़ुए का आटा डालकर उसकी रोटी (लेसू रोटी) खाते हैं और मड़ुआ/रागी का सेवन केवल स्वाद लेने तक रह गया है। यानी मानव के अंधे विकास ने यहां भी अपना असर छोड़ दिया था।
ज्यादा पड़ताल करने पर पता चला कि यहां के ग्रामीण इलाकों में ज्यादातर लोगों को राशन से महीने में एक बार मिलने वाला दो टके सेर गेहूं और चावल उपलब्ध हो जाता है, जिस वजह से लोगों ने मड़ुआ की उपज कम कर दी और अब मड़ुआ यहां के लोगों के लिए मुख्य खाद्यान्न नहीं रह गया है।
चूंकि पहाड़ों में लोगों को ढालों और चढ़ाइयों वाली स्थलाकृतियों के बीच रहना पड़ता है, इसलिए उन्हें मैदानों की तुलना में चलने में अधिक श्रम करना पड़ता है। जिसका असर उनकी हड्डियों और जोड़ों के घिसावट और उनमें कैल्शियम की कमी के रूप में सामने आता है। ऐसे में उन्हें कैल्शियम की विशेष मात्रा की आवश्यकता होती है। पर मड़ुए का सेवन कम होने से उन्हें कैल्शियम की पर्याप्त मात्रा नहीं मिल पाती है, जो हड्डियों और जोड़ों के विकारों में परिणत होते हैं।
इसलिए अपने स्वास्थ्य को बरकरार रखना चाहते हैं तो अभी से अपने खाने में मड़ुए को जगह देना शुरु कर दें। आप गेहूं, चावल या अन्य अनाज जरूर खाइए, पर रोजाना कम से कम एक मुख्य भोजन मड़ुए की काली रोटी या इसके अन्य व्यंजनों के साथ निर्मित कीजिए। यह आपके पास के राशन की दुकान या मॉल में तो मिल ही जाता है, बल्कि आस-पास की चक्की से भी बात कर आप इसका जुगाड़ कर सकते हैं।
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Uday Shankar Singh
Great article, very, very useful.
admin
Thank you sir. We are grateful to the Mr. Sumit Singh for he spare some time from his work to share this valuable article with the readers of Wide Angle of Life.
त्रिलोकीनाथ मिश्र
🕉️अति महत्त्वपूर्ण। अभी ताजे दाने तैयार हुए हमरे घर के आंगन में। वैसे मड़ुआ को हम मकरा नाम से पहचानते हैं। इसके अद्भुत लाभ बताने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद आपको। जय श्रीराम🙏🕉️
admin
धन्यवाद त्रिलोकीनाथ जी!
admin
धन्यवाद त्रिलोकीनाथ जी।