कामरूप-कामाख्या यानी देवी कामाख्या मंदिर भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न देशों में फैले 51 शक्तिपीठों में सबसे प्रसिद्ध शक्तिपीठ है। हिंदू धर्म के वाममार्गी शाक्त और तंत्र शाखा के साधकों के लिए यह दुनिया का सबसे प्रमुख स्थल है। नवरात्र सहित अन्य विशेष अवसरों पर यहां दुनिया भर के तंत्रसाधक तंत्रविद्या सीखने या अपनी साधना को निखारने के उद्देश्य से जुटते हैं।
कामाख्या मंदिर/Kamakhya Temple : 51 शक्तिपीठों मेंं श्रेष्ठ
यह स्थल असम की राजधानी दिसपुर से 13 किमी की दूरी पर है। गुवाहाटी रेलवे स्टेशन से यह स्थान उत्तर-पश्चिम की ओर केवल 9 किमी की दूरी पर है। गुवाहाटी शहर देश के विभिन्न भागों से रेल, सड़क हवाई मार्ग से जुड़ा है। दिल्ली, मुंबई, बंगलौर, चेन्नई, हैदराबाद, कोलकाता सहित देश के अन्य प्रमुख शहरों से गुवाहाटी तक सीधी रेल-सेवा उपलब्ध है। कामख्या मंदिर ब्रह्मपुत्र नदी के दक्षिणी तट पर लगभग 600 फीट की ऊंचाई पर नीलाचल पहाड़ी के ऊपर स्थित है। ऊपर मंदिर तक जाने के लिए सुंदर सड़क मार्ग है। मंदिर से 18 किमी की दूरी पर पश्चित की ओर गुवाहाटी का बारदोलाई एयरपोर्ट है। रेलवे स्टेशन और एयरपोर्ट से मंदिर तक के लिए आसानी से टैक्सी, ऑटो रिक्शा बस आदि मिल जाते हैं। ठहरने के लिए किफायती होटल मंदिर के आस-पास भी उपलब्ध हैं और विकल्प के तौर पर गुवाहाटी में भी ठहरा जा सकता है।
अन्य प्रमुख मंदिर
नीलाचल पहाड़ी पर कई अन्य मंदिर भी हैं। इनमें शाक्त संप्रदाय की 10 महाविद्याओं- बगलामुखी, काली, तारा, भैरवी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, शोडषी, कमला, धूमावती और मातंगी के मंदिर प्रमुख हैं। इनमें से त्रिपुरसुंदरी, कमला और मातंगी के मंदिर मुख्य मंदिर के परिसर में हैं। बाकी मंदिर मुख्य मंदिर से हटकर उसी नीलाचल पहाड़ी पर स्थित हैं।
देवी कामाख्या मंदिर और ‘अंबूवाची’ पर्व
पृथ्वी पर मातृसत्ता की प्रतीक स्त्री योनि की पूजा सिंधुघाटी सभ्यता के बाद शायद ही कभी किसी अन्य स्थान पर प्रचलित रही हो। मूल मंदिर में कोई मूर्ति नहीं है, केवल स्त्री-योनि के स्वरूप में एक शिला है जिसकी पूजा की जाती है। इस शिला को ‘महामुद्रा’ कहा जाता है।
करोड़ों हिंदुओं की आस्था का केंद्र और विशेषकर वाममर्गी तांत्रिक समुदाय की यह साधना स्थली दुनिया के सभी धार्मिक स्थलों से अनोखी और रहस्यमय है। यहां आदिशक्ति की रजस्वला-रूप का विशेष महत्व है। परंपरा के अनुसार, प्रतिवर्ष आसाढ़ महीने में देवी रजस्वला होती हैं। यह तीन दिनों का विशेष समय होता है जब कहा जाता है कि मंदिर का द्वार ‘स्वतः’ बंद हो जाता है। इस दौरान मंदिर परिसर में किसी के भी प्रवेश की अनुमति नहीं होती।
यूं तो यह स्थल तांत्रिकों और अधोरियों की साधना स्थली के रूप में रहस्यमय है ही, आसाढ़ (जून) महीने के इन तीन विशेष दिन के दौरान यहां जो कुछ होने की बात कही जाती है वह अत्यंत रहस्यमयी है। माना जाता है इन तीन दिनों के दौरान देवी की योनि के प्रतीक ‘महामुद्रा’ से पानी की जगह खून की धारा बहती है जिससे ब्रह्मपुत्र नदी का पानी लाल हो जाता है। इस बारे में कुछ कहना कठिन है, ऐसा क्यों, कैसे होता है, या वास्तव में होता भी है या नहीं!
जो भी हो लेकिन, यह बात जरूर अनोखी है। हिंदू रिवाज के हिसाब से मासिक-धर्म के दौरान रजस्वला स्त्री को अपवित्र मानने की परंपरा रही है। लेकिन, कामाख्या मंदिर की परंपरा इसके उलट है। यहां इस स्थल की पवित्रता और महत्ता सर्वाधिक इसी समय होती है जब देवी रजस्वला होती है। मासिकचक्र के उक्त तीन दिन के बाद मंदिर का द्वार खुलता है। तब देवी की भव्य पूजा अर्चना की जाती है। देवी के रजस्वला होने यानी ‘दिव्य माहवारी’ और उसके बाद का यह समस्त अनुष्ठान ‘अंबूवाची’ पर्व के रूप में हर वर्ष मनाया जाता है। इसे सृष्टि के लिए नारी-शक्ति की महत्ता के रूप में देखना चाहिए।
‘अंबूवाची’ पर्व को तंत्र मार्ग के गुप्त अनुष्ठान करने वाले साधक बहुत ही महत्वपूर्ण मानते हैं। इस दौरान दुनिया भर के तांत्रिक, मंत्राचारी, अघोरी तथा अन्य गंभीर साधक यहां विशेष साधना करने पहुंचते हैं। कहते हैं, इस दौरान की जाने वाली साधनाओं से उनकी सिद्धियों को नई शक्ति प्राप्त होती है।
‘कामिया वस्त्र’
इस दौरान मंदिर में योनि-स्वरूप ‘महामुद्रा’ को सफेद वस्त्र से ढक दिया जाता है जो रक्त से भींगकर लाल हो जाता है। बाद में इस लाल वस्त्र के टुकड़े ‘कामिया वस्त्र’ के नाम से ऊंचे दामों पर श्रद्धालुओं को बेचे जाते हैं। ‘अंबूवाची’ के दौरान खून की धारा बहने को लेकर जो किंवदंती है उसका कोई ठोस प्रमाण देना मुश्किल है। कुछ लोग इसे पंडों की कारगुजारी बताते हैं जो इन तीन दिनों में बंद मंदिर के अंदर से ढेर सारा सिंदूर और रंग बहाते हैं। वहीं कुछ लोग यह मानते हैं कि यह विशाल संख्या में काटे गए प्राणियों का खून होता है। जो भी हो, आइए चलें मंदिर से जुड़े कुछ प्रचलित कथाओं की तरफ।
प्रचलित किंवदंतियां
सर्वाधिक प्रचलित कथा के अनुसार प्रजापति दक्ष के यज्ञ में आत्मदाह से मृत देवी सती के शव को कंधे पर लादे व्याकुल शिव ब्रह्मांड में यहां-वहां भटक रहे थे। तब भगवान विष्णु को सती के शव नष्ट कर शिव को इस स्थिति से मुक्त कराने की तरकीब सूझी। उन्होंने सुदर्शन चक्र चलाया और देवी सती के मृत शरीर के एक-एक अंग कटकर यहां-वहां गिरने लगे। कहा जाता है कि देवी की योनि और गर्भाशय जहां गिरा वही स्थान है कामाख्या।
दूसरी कथा के अनुसार, कामदेव के ‘काम’ वाण से क्रोधित होकर शिव ने उन्हें अपने तीसरे नेत्र की ज्वाला से भष्म कर दिया। लेकिन, चूंकि सृष्टि के संचालन के लिए कामदेव का होना आवश्यक था, इसलिए उसे पुनर्जीवित करना भी देवताओं की जिम्मेदारी थी। माना जाता है कामदेव को नीलांचल पर्वत के इसी स्थल पर आदिशक्ति की योनि के कारण पुनर्जीवन मिला और उनकी कामशक्ति वापस आई। इस कारण, इस स्थल का नाम कामाख्या पड़ा। पौराणिक मान्यता के अनुसार देवी कामाख्या का प्राचीन मूल मंदिर का निर्माण स्वयं कामदेव ने कराया था।
एक अन्य पौराणिक अनुश्रुति के अनुसार नरकासुर नामक राक्षस देवी कामाख्या के सौंदर्य पर मोहित हो गया। उसने देवी के सामने विवाह प्रस्ताव रखा। देवी ने सीधे तौर पर तो मना नहीं किया, लेकिन उससे छुटकारा पाने की एक तरकीब सोची। उन्होंने उसके सामने चुनौती रखी कि यदि वह पर्वत के आधार भाग से ऊपर मंदिर तक सीढ़ियों का निर्माण कर दे, तो वह उसके साथ विवाह कर लेंगी। लेकिन शर्त यह भी थी कि यह काम भोर होने से पहले हो जाए, अन्यथा विवाह संभव नहीं होगा। प्रमुदित नरकासुर मुस्तैदी से काम में जुट गया और तेजी से निर्माण करने लगा। आधी रात तक उसके काम की प्रगति देख कर देवी चिंतित हो उठीं। उन्हें लगा इस रफ्तार से काम करते हुए तो वह सचमुच शर्त जीत जाएगा। तब, उन्होंने एक चाल चली।
उन्होंने एक अपनी माया से एक मुर्गे का निर्माण कर उससे सुबह होने से पहले बांग दिलवा दिए। रात्रि समाप्ति की इस असमय घोषणा से नरकासुर ने गुस्से में आकर मुर्गे का पीछा किया और उसका वध कर डाला। उस मुर्गे, यानी कुक्कुट के कारण वह स्थान ‘कुक्कुटा-चकी’ कहलाया जिसके वहीं पर कहीं ब्रह्मपुत्र नदी के दूसरे किनारे पर होने की मान्यता है। उसके बाद, भगवान विष्णु के हाथों नरकासुर का वध हुआ। मंदिर के पास बनी अधूरी सीढ़ियों का समीकरण इसी नरकासुर के अधूरे निर्माण से जोड़ा जाता है।
कामाख्या मंदिर का संक्षिप्त इतिहास/History of Kamakhya Temple
माना जाता है, नरकासुर की इस घटना के बाद वह स्थल अपवित्र हुआ और देवी ने उस स्थल का त्याग कर दिया। कामदेव द्वारा निर्मित प्राचीन मंदिर भी खंडहरों में बदल गया। बाद में कभी फिर से मंदिर बनाया गया जो 15वीं शताब्दी तक मौजूद था। 15वीं शताब्दी में बंगाल के शासक अलाउद्दीन हुसैन शाह के असम पर आक्रमण के दौरान वह मंदिर भी ध्वस्त किया गया। 16वीं शताब्दी में कूचबिहार के राजा ‘नर-नारायण’ ने मंदिर का पुनर्निर्माण कराया। 1565 ई. में निर्माण कार्य पूरा हुआ। बाद में 17वीं शताब्दी में असम के ‘अहोम’ राजवंश के काल में भी मंदिर में कुछ निर्माण कार्य हुए। हम आज जिस मंदिर को देखते हैं उसे वर्तमान स्वरूप इसी काल में प्राप्त हुआ।
वामाचारियों के लिए कामाख्या यानी कामरूप-कामाख्या की यह तंत्रसाधना स्थली अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। प्रसिद्ध नाथपंथी योगी गोरखनाथ, उनके गुरु महायोगी मत्स्येंद्रनाथ, इस्माइलजोगी, लोनाचमारी जैसे प्रसिद्ध साधकों ने यहीं साधना कर सिद्धियां पायीं।
कामाख्या देवी की आराधान से जुड़े कई मंत्र हैं, जिनमें यह मंत्र सबसे सरल और रोचक है:
कामाख्ये काम-सम्पन्ने, कामेश्वरि! हर-प्रिये!
कामनां देहि मे नित्यं, कामेश्वरि! नमोऽस्तु ते।।
कामदे काम-रूपस्थे, सुभगे सुर-सेविते!
करोमि दर्शनं देव्या:, सर्व-कामार्थ-सिद्धये।।
अर्थात्- हे कामाख्या देवि! कामना पूर्ण करनेवाली, कामना की अधिष्ठात्री,
शिव की प्रिये! मुझे सदा शुभ कामनाएँ दो और
मेरी कामनाओं को सिद्ध करो। हे कामना
देनेवाली, कामना के रूप में ही स्थित
रहनेवाली, सुन्दरी और देव-गणों से सेविता
देवि! सभी कामनाओं की सिद्धि के लिए मैं
आपके दर्शन करता हूँ।
नए आलेखों की जानकारी पाने के लिए Follow बटन क्लिक कर ब्लॉग सब्सक्राइब कर लें। Follow बटन क्लिक करने के तुरंत बाद आपको एक ईमेल जाएगा जिसे खोलकर आपको ‘Confirm Follow’ पर क्लिक करना होगा, बस!
No Responses