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कल्पना सरोज की सक्सेस स्टोरी, 0 से $100 मि. की यात्रा

कल्पना सरोज
कल्पना सरोज

सफल महिला उद्यमी कल्पना सरोज की सक्सेस स्टोरी

दोस्तो, असली सफलता की कहानी ग्लैमरस नहीं होती और हर करोड़पति चांदी की चम्मच के साथ नहीं जन्म लेता। न ही सफल उद्यमी बनने के लिए एमबीए और मैनेजमेंट की भारी-भरकम डिग्री अनिवार्य होती है। हो सकता है जब हम किसी सफल बिजनसमैन या उद्योगपति की बात करें तो हमारे मन में काली सूट-टाई पहने एक जैंटलमैन टाइप ऐसे आदमी की छवि बने जो अपनी चमचमाती काली मर्सिडीज पर हाथ रखे मुस्कुराता हो। लेकिन, सफलता की सबसे जमीनी कहानी बहुत कठिन और लंबे संघर्षों के बाद बन पाती है। फिर वह कहानी अगर किसी ठेठ गांव की औरत की हो तो इसमें सघर्ष और तकलीफ के तत्व अधिक होते हैं। संघर्ष की एक ऐसे ही असंभव सी लगने वाली कहानी है उस औरत की है जिसने जंगल से जलावन बीनने से लेकर करोड़ों डॉलर की कंपनी चलाने तक का सफर अपने हौसले और अपनी काबिलियत के बल पर तय किया। आइए, जानते हैं क्या है कल्पना सरोज की सक्सेस स्टोरी!

1961 में महाराष्ट्र के अकोला जिले के एक पासी दलित परिवार में जन्मी कल्पना सरोज अपनी तीन बहनों और दो भाइयों में सबसे बड़ी थीं। कल्पना गरीब घरों की दूसरी लड़कियों की ही तरह थीं। जानवरों की देखभाल करना, जंगल जाना, लकड़ियां बीनना, पानी लाना और घरेलू काम-काज में हाथ बंटाना उनकी दिनर्चया थी। पिता ग्रामीण पुलिस के सिपाही थे। कल्पना की शादी महज 12 साल की उम्र में उनसे दस साल बड़े आदमी से कराई गई। शादी के बाद उनका जीवन मुंबई की झोपड़पट्टी के एक कमरे में बीता जहां उन्हें ससुराल वालों के साथ रहते हुए उनके बदसलूकियों और अत्याचारों के साथ जीना था, जैसा अकसर कहानियों और फिल्मों में होता है। ससुराल वालों की पिटाई, गालियों और कुपोषण के बीच जीती हुई कल्पना को आखिर 6 महीने बाद ही उसके पिता वापस अपने गांव ले आए। अब यहां एक अलग यातना थी। लोग कहते जरूर लड़की में कोई दोष है, तभी ससुराल वालों ने साथ नहीं रखा। अब ऐसी स्थिति में बात आत्महत्या तक पहुंची, मगर समय पर इलाज से जान बच गई।

इसके बाद की कहानी का दृश्य फिर मुंबई शिफ्ट होता है। अब वह चाचा के घर कल्याण चली आईं जहां से उनकी जिंदगी ने एक नया मोड़ लिया। तब उनकी उम्र 16 थी और उनके पास सिलाई की थोड़ी-बहुत जानकारी थी। तब टेलरिंग का छोटा सा काम शुरू करने वाली कल्पना ने पहली बार जीवन में 100 रुपए देखे थे, जिसके रोमांच की याद उन्हें अब भी है। अब इतनी आमदनी होने लगी कि गांव से आकर भाई-बहन भी साथ रहने लगे। इन्हीं दिनों बीमार बहन के न बच पाने से कल्पना के मन में अधिक पैसे कमाने की बात जोर पकड़ी, क्योंकि उन्हें लगा जितनी आमदनी है वह परिवार के लिए काफी नहीं। फिर उन्होंने सरकारी लोन लेकर फर्नीचर का एक छोटा सा काम शुरू किया। उनके आस-पास गरीबी के संघर्ष से जूझते लोग थे। लोगों की छोटी-मोटी मदद तो वह अपनी सीमित कमाई से कर ही देती थी, लेकिन इस दौरान उन्होंने देखा अनेक लोग ऐसे थे जो कुछ अपना शुरू करना चाहते थे लेकिन उनके सामने लोन की समस्या थी। अब उनके मन में लोगों के लिए लोन जुटाने वाले एक एनजीओ बनाने का खयाल आया। इसके बाद उनकी छवि लोगों की मदद करने वाली एक ईमानदार उद्यमी और समाजसेविका की बन गई। गरीबी से जूझते जरूरतमंद लोग उन्हें चाहने लगे। क्या यह स्टार्ट-अप और आंट्रप्रन्योरशिप (entrepreneur) का जमीनी उदाहरण नहीं है?

अब समय था इस आंट्रप्रन्योरशिप को अगली ऊंचाई तक ले जाने का। दोस्तो, क्या होता है कि जब आप अपनी एक चरण की सफलता पर अटक नहीं जाते और अपनी विकास यात्रा को आगे ले जाना जारी रखते हैं, तो कुदरत आपके लिए अगली ऊंचाइयों पर गोल तय करती है। इन्हीं दिनों मुंबई में कमानी ट्यूब्स नाम की एक कंपनी थी जो घाटे में चलने की वजह से पहले तो बंद होने के कगार पर आ गई, लेकिन फिर कोर्ट के हस्तक्षेप से इसका प्रबंधन इसके कर्मचारियों के हाथों में सौंपा गया। लेकिन, कंपनी का चलना तब भी मुश्किल था और उसके ऊपर करोड़ों के कर्जे थे। कंपनी के पूरी तरह बंद हो जाने का अर्थ था मजदूरों और कर्मचरारियों के अनेक अधिक परिवारों का उजड़ जाना। अब तक कल्पना सरोज की ईमानदार और समाजसेवी-उद्यमी वाली साफ-सुथरी पहचान मिहनत करने वाले जमीनी लोगों में इतनी मजबूत बन चुकी थी कि कमानी ट्यूब्स के कर्मचारियों ने उनसे इस संकट से बाहर निकालने में मदद मांगी। कंपनी के ऊपर लगभग दर्जनों मामले दर्ज थे और करोड़ों का कर्ज था। महीनों से कामगारों को पगार नहीं मिली थी।

कामगारों के साथ

ऐसे में कल्पना सरोज के लिए यह अनोखी चुनौती थी जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। बहुत कोशिश करने पर सरकार ने बैंक लोन का एक बड़ा हिस्सा माफ कर दिया। कंपनी को नए सिरे से चलाने के लिए एक टीम बनाई गई। 2006 में कल्पना उस कंपनी की चेयरमैन बनीं। ऋण-माफी के बाद बची रकम को चुकाने के लिए सरकार की ओर से 7 साल की मोहलत दी गई, लेकिन कंपनी की नई चेयरमैन की सूझबूझ और काबिलियत से 1 साल के अंदर ही सारे कर्जे चुका दिए गए। आज कमानी ट्यूब्स करोड़ों रुपए के टर्नओवर वाली एक सफल कंपनी है। जब कमानी ट्यूब्स की कमान उन्होंने संभाला था तब उनके पास कंपनी चलाने का न कोई अनुभव था और न ही मैनेजमेंट की कोई डिग्री। लेकिन समस्या के साथ लड़ते हुए सीखने के अपने रुझान, साहस और कामगारों के सहयोग और अनुभव के सही उपयोग से उन्होंने वह कर दिखाया जो शायद किसी डिग्रीधारी पेशेवर CEO के लिए भी आसान नहीं था।

समाजसेवा और आंट्रप्रन्योरशिप (उद्यमिता) के लिए उन्हें 2013 में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया। आज रियल एस्टेट सहित उनके सभी कारोबारों का टर्नओवर 100 मिलियन डॉलर, यानी 710 करोड़ रुपए से कम नहीं है।

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