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क्यों मिला इस ‘चाय वाले’ को पद्मश्री सम्मान…

अक्सर हम बड़ी कामयाबी की ग्लैमरस कहानियों में उन छोटे-छोटे प्रयासों को नहीं जान पाते जिनकी गूंज बहुत दूर तक तो नहीं जाती लेकिन जिनकी वजह से कई जिंदगियों में बदलाव और सुकून की रोशनी लगातार बेआवाज फैलती जाती है। उड़ीसा के कटक जिले में चाय की दुकान चलाने वाले 61 वर्षीय डी प्रकाश राव अपने ऐसे ही प्रयासों के जरिए बिना कोई बड़ी कहानी बने लगातार अपने आस-पास बदलाव की रोशनी लाने में जुटे हैं। जरा सोचिए, हजारों की मासिक आय वालों के लिए भी अपने परिवार के खर्चे से बाहर कुछ सोच पाना कठिन होता है, ऐसे में एक चाय के सामान्य ढाबे से होने वाली बहुत छोटी आमदनी का आधा अपने परिवार पर खर्च करने की बजाए औरों की जिंदगी बदलने के लिए खर्च कर देने के लिए कितना बड़ा मन और दुनिया से कितना गहरा प्रेम चाहिए होगा! अपनी बनाई चाय के हर कप से होने वाली कमाई का आधा हिस्सा वह उन बच्चों की पढ़ाई पर खर्च करते हैं जो गरीबी के कारण स्कूल नहीं जा पाते!

पिछले दिनों जब प्रधानमंत्री उड़ीसा के दौरे पर थे, तब उन्होंने प्रकाश राव से मुलाकात की और 18 मिनट उनके साथ बिताया। प्रधानमंत्री से भेंट को याद कर एनडीटीवी के एक साक्षात्कार में वह बताते हैं, “मैं अपने 15-20 बच्चों को लेकर उनसे मिलने गया था। थोड़ी हिचकिचाहट थी, लेकिन मुझे देखते ही वह दूर से हाथ हिलाए और बोले, ‘राव साहब, मैं यहां आपसे मिलने आया हूं। मैं आपके बारे में सब जानता हूं। किसी को कुछ बताने की जरूरत नहीं है’।” इसके बाद 26 मई को रेडियो पर ‘मन की बात’ में प्रधानमंत्री ने पूरे देश को प्रकाश राव के योगदानों की जानकारी दी।   

देवरापल्ली प्रकाश राव के पिता भारतीय-ब्रिटिश सेना में सिपाही थे। द्वितीय विश्वयुद्ध खत्म होने के बाद सेना की नौकरी से छुट्टी पाकर उनके पिता ने चाय की दुकान खोल ली और अपने साथ छह साल के प्रकाश राव को भी दुकान पर बिठाने लगे। पिता के लिए बेटे की पढ़ाई का कोई खास महत्व नहीं था, इसलिए प्रकाश राव कभी अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी न कर सके। खूब पढ़ने और फुटबॉल खेलने की इच्छा रखने वाले प्रकाश राव को अपने छोटे से स्कूल के बच्चों में अपना अधूरा बचपन पूरा होते दिखता है। पिछले 5 दशक से चाय की दुकान चलाते हुए उनकी आंखों के सामने अपना बचपन, अपनी अधूरी पढ़ाई और अभावग्रस्त बच्चों की तस्वीर एक साथ बनी रही। उन्होंने अपने दो कमरों के फूस के घर से चार बच्चों से साथ पाठशाला शुरू की। आज कक्षा 3 तक के उनके स्कूल में आस-पास के 70 बच्चे पढ़ते हैं। पहले उन्हें घर-घर जाकर लोगों को समझाना पड़ता था, आज लोग खुद ही अपने बच्चों को उनके पास भेजते हैं। तीसरी कक्षा के बाद वह इन बच्चों का दाखिला सरकारी स्कूल में कराते हैं।

चाय बेचपर वह रोज औसतन 700 रु. कमाते हैं और बच्चों की पढ़ाई का सारा खर्च वह इसी चाय की आमदनी से चलाते हैं। उनके लिए किताब, कॉपी, कलम, पेंसिल जैसी स्टेशनरी चीजों के अलावा स्कूल में उनकी जरूरतें भी वह अपने पैसे से पूरी करते हैं। बचपन में अभाव और कुपोषण को खुद झेल चुके प्रकाश राव अपने विद्यार्थियों के लिए खाने के अलावा दूध का भी इंतजाम करते हैं। लोगों की मदद से अब उनका स्कूल दो कमरों के पक्के घर में शिफ्ट हो गया है। जिसमें एक रसोई भी है जहां वह अपने हाथों से अपने विद्यार्थी बच्चों के लिए खाना बनाते हैं। इतना ही नहीं, 700 रुपए की इसी आमदनी का एक हिस्सा वह स्थानीय अस्पताल में मरीजों के लिए गर्म पानी और दूध मुहैया करने पर भी खर्च करते हैं। इसके लिए अस्पताल प्रबंधन से उन्हें बस अस्पताल परिसर में एक कमरा मिला है।

1976 में 18 साल के प्रकाश राव कुपोषण जनित पक्षाघात के शिकार हुए थे। छह महीने अस्पताल में रहकर जब वह स्वस्थ हुए तो उन्हें पता चला कि किसी ने अपना खून देकर उनकी जान बचाई थी। तभी प्रकाश राव ने तय कर लिया था उनके प्रति की गई उस मानवीय मदद को वह कई गुना बनाकर समाज को लौटाएंगे। तबसे आज तक उन्होंने रक्त दान कर 200 से अधिक बार लोगों की जान बचाने में मदद की है।

इस साल उन्हें भारत के राष्ट्रपति के हाथों देश के चौथे सबसे प्रतिष्ठित पद्मश्री सम्मान दिए जाने की घोषणा हुई।

डी. प्रकाश राव उदाहरण हैं इस बात का कि समाज को लौटाकर देने की यदि हममे इच्छा हो तो किसी भी स्तर से, कहीं भी, कभी भी ऐसी कोशिश शुरू की जा सकता है। हमारे आस-पास हो रही ऐसी निजी कोशिशों से दुनिया लगातार चुपचाप धीरे-धीरे बदल रही होती है। दोस्तो, यदि आपके आस-पास भी व्यक्तिगत प्रयासों की कोई मिसाल है तो हमारे साथ साझा करें।

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