चमकी बुखार बिहार में मुजफ्फरपुर और उसके आसपास के कुछ जिलों में छोटे बच्चों में होनी वाली एक रहस्यमयी बीमारी का स्थानीय नाम है (इसमें रोगी के शरीर में झटके आते हैं जिसे स्थानीय बोली में ‘चमकी’ कहा जाता है)। इस बीमारी की दवा नहीं होती लेकिन एहतियात और बचाव से इस बीमारी से पूरी तरह बचा जा सकता है।
डॉक्टरी भाषा में इसे एक्यूट एनसेफ्लाइटिस सिंड्रोम (AES) या हाइपोग्साइसीमिक एनसेफ्लोपैथी कहा जाता है। पाया गया है कि यह बीमारी लीची बागानों के बहुतायत वाले इलाकों में और लीची पकने के मौसस में फैलती है। अधपकी लीची में मौजूद एक टॉक्सिन कुपोषित बच्चों के लिए घातक होता है। जबकि, यह टॉक्सिन स्वस्थ्य मनुष्य को कोई नुकसान नहीं पहुंचाता।
मेडिकल साइंस में चमकी बुखार पर अब कोई निर्णायक शोध नहीं हो पाया है। इसलिए, इस बीमारी के कारण और उपचार, यहां तक कि इसके नाम के बारे में भी स्थित पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। कुछ डॉक्टर इसे एक्यूट एनसेफ्लाइटिस सिंड्रोम (Acute Encephalitis Syndrome) या AES कहने पर बल देते हैं, तो कुछ इसे हाइपोग्साइसीमिक एनसेफ्लोपैथी (Hypoglycemic Encephalopathy) मानते हैं।
पिछले कई सालों से, बिहार में इस चमकी बुखार से अमूमन हर साल सैकड़ों बच्चों की मौत हो जाती है। इससे प्रभावित होने वाले बच्चों में से ज्यादातर 1-10 वर्ष आयु के होते हैं। प्रायः यह बीमारी सर्वाधिक जून की चरम गर्मी के महीने में फैलती है जब बिहार के लीची बागानों में लीची पक रही होती है।
लक्षण
चमकी बुखार की चपेट में आने वाले बच्चे ज्यादातर 1-10 साल आयु-वर्ग के होते हैं। बच्चा उल्टी करता है, उसे फ्लू जैसा बुखार आता है। बुखार कभी पहले या कभी अन्य लक्षणों के प्रकट होने के बाद भी आ सकता है। सिर और पूरे शरीर में दर्द होता है। अचेत होने जैसा महसूस होता है। चलने फिरने में कठिनाई होती है। शरीर में और सिर में झटके लगते हैं और रोगी का मस्तिष्क प्रभावित होता है। बोलने और चीजों को समझने में दिक्कत होती है। मिर्गी जैसे दौरे आने लगते हैं। शरीर ऐंठने लगता है और रोगी कोमा में चला जाता है। अंततः, उसकी मौत हो जाती है।
मृत्यु का कारण
कुल मिलकार, अंतिम रूप से जो बात बच्चे की मृत्यु का कारण बनती है वह है शरीर में हुई ग्लूकोज की अचानक कमी (हाइपोग्लाइसीमिया) और उसके उपचार में देरी! ग्लूकोज की यह गंभीर कमी रोगी के मस्तिष्क को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाता है और वह अंततः काम करना बंद कर देता है। हमारा मस्तिष्क शरीर के कुल वजन का महज 2% होता है। लेकिन, सुचारू काम करने के लिए मस्तिष्क को शरीर में जरूरी ग्लूकोज का 20% से अधिक चाहिए होता है।
प्राथमिक रूप से शरीर के सभी अंग और मस्तिष्क प्रतिदिन के आहार से प्राप्त ग्लूकोज का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन, उपवास या किसी अन्य वजह से भोजन नहीं मिलने या उसकी कमी होने पर शरीर के विभिन्न अंगों में संचित वसा (fat) और ग्लाइकोजेन से ग्लूकोज की पूर्ति होती है।
बच्चा यदि पहले से अल्प पोषण का शिकार है तो जाहिर है उसके शरीर को नियमित दैनिक ग्लूकोज की मात्रा नहीं मिल पाती। लिवर में ग्लाइकोजेन पहले से नगण्य होता है। ऐसे में AES/ हाइपोग्साइसीमिक एनसेफ्लोपैथी के चपेट में आने पर उसके शरीर में संचित वसा से ग्लूकोज बनने की प्रक्रिया बाधित हो जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि मस्तिष्क की कार्यप्रणाली ठप हो जाती है और अंततः बच्चे की मृत्यु हो जाती है।
कुपोषित बच्चे इस बीमारी का आसान शिकार बनते हैं।
निदान
AES से प्रभावित बच्चे के शरीर में यदि तुरंत अतिरिक्त मात्रा में ग्लूकोज पहुंचाया जाए, चाहे मुंह के जरिए या नसों के जरिए, तो बच्चे को निश्चित रूप से बचाया जा सकता है। ग्लूकोज की आपूर्ति से मस्तिष्क सहित शरीर के सभी अंग सुचारू काम करते रहेंगे और बच्चे के मौत नहीं होगी।
यहां दो बातें अहम हो जाती हैं। पहली बात, बच्चे के परिवार को इस बारे में जागरुक बनाना और दूसरी बात, घर में ग्लूकोज की पर्याप्त उपलब्धता अथवा समय रहते बच्चे को अस्पताल में ग्लूकोज चढ़ाया जाना। इस संदर्भ में, क्रिस्चियन मेडिकल कॉलेज, वेल्लोर (तमिलनाडु) के वायरोलॉजिस्ट डॉ टी. जैकब जॉन (जिन्होंने 2012, 13 और 14 में बिहार में इस बीमारी पर काम किया था) की सलाह बेहद मायने रखती है। वे कहते हैं अस्पताल लाए गए AES प्रभावित बच्चों को चढ़ाए जाने वाले ग्लूकोज का सांद्रण 10% होना चाहिए, उससे कम नहीं (हाइपोग्लाइसीमिया की सामान्य मामले में यह 5% होती है।)।
वर्षों के अध्ययन से यह बात साफ जाहिर होती है कि चमकी बुखार के शिकार ज्यादातर बच्चे बेहद गरीब परिवारों के होते हैं। इन परिवारों में स्वास्थ्य और पोषण को लेकर जागरुकता और साधन दोनों का भयंकर अभाव होता है। इसलिए, बच्चों के पोषण पर ध्यान देना और बीमारी के लक्षण दिखते ही तुरंत ग्लूकोज देने जैसे एहतियाती कदम उठाने के बारे में लोगों को जागरुक करना इस बीमारी से निपटने के प्रयासों का सबसे जरूरी और अनिवार्य हिस्सा है।
चमकी बुखार का लीची-कनेक्शन
इस बीमारी के शिकार होने वाले बच्चों में यह बात कॉमन रही है कि वे प्रायः लीची के सघन उत्पादन वाले इलाके के गरीब परिवारों से होते हैं और कुपोषित रहते हैं। उनके शरीर में पहले से ही पोषकतत्वों और ग्लाइकोजेन का स्तर निम्न रहता है। डॉक्टरों का मानना है, जब ये बच्चे बहुत मात्रा में अधपकी लीची खाते हैं तो उनके शरीर में ग्लूकोज का स्तर अचानक सामान्य से काफी नीचे गिर जाता है।
अधपकी लीची में मिथाइलीन साइक्लोप्रोपाइल ग्लाइसीन / methylene cyclopropyle glycine (MCPG) नामक टॉक्सीन पाया जाता है। डॉ. जॉन ने इसकी पुष्टि की थी। कुपोषण ग्रस्त बच्चे के लिवर में ग्लाइकोजेन के अभाव के कारण नॉर्मल परिस्थिति में शरीर और मस्तिष्क को फैटी एसिड के ऑक्सीकरण से कामचलाऊ ऊर्जा मिल जाती है। लेकिन, अधपकी लीची में मौजूद MCPG टॉक्सीन इस प्रक्रिया को रोक देता है।
परिणामस्वरूप बच्चे के शरीर में ग्लूकोज की कमी जानलेवा स्तर पर पहुंच जाती है और तब बच्चे में बीमारी के लक्षण दिखाई पड़ते हैं। लक्षण दिखते ही अधिकतम चार घंटे के अंदर शरीर को अतिरिक्त ग्लूकोज की पूर्ति शुरू हो जानी चाहिए। इस प्रक्रिया में देरी ही बच्चे के मौत का अंतिम कारण बन जाती है।
ध्यान रखें: अधपकी लीची में मौजूद यह टॉक्सिन कुपोषण ग्रस्त बच्चों के लिए घातक होता है, जबकि स्वस्थ्य बच्चे या वयस्क को इससे कोई नुकसान नहीं पहुंचता।
बीमारी के नाम को लेकर क्यों है कनफ्यूज़न
देखा जाए तो एक्यूट एनसेफ्लाइटिस सिंड्रोम (AES) और हाइपोग्साइसीमिक एनसेफ्लोपैथी दोनों ही नाम अपनी-अपनी जगह पर सही हैं। दशकों तक बिहार के इन्हीं इलाकों में मानसून-पूर्व की भीषण गर्मी में गरीब बच्चे एनसिफ्लाइटिस [एक्यूट एनसेफ्लाइटिस सिंड्रोम (AES)] की चपेट में आते रहे हैं।
एक्यूट एनसेफ्लाइटिस सिंड्रोम (AES) और हाइपोग्साइसीमिक एनसेफ्लोपैथी में सबसे बड़ा अंतर यह है कि जहां AES में पहले बुखार होता है और उसके बाद मस्तिष्क को नुकसान पहुंचता है, वहीं हाइपोग्साइसीमिक एनसेफ्लोपैथी की स्थिति में मस्तिष्क को नुकसान पहले पहुंचता है और उसके बाद बुखार आता है।
दोनों में दूसरा अंतर यह है कि AES जहां वायरल इनफेक्शन से पैदा होता है वहीं हाइपोग्साइसीमिक एनसेफ्लोपैथी का कारण शरीर का गंभीर बायो-केमिकल असंतुलन है।
प्रख्यात वायरोलॉजिस्ट डॉ. टी जैकब जॉन ने 2014 में इस संदर्भ में बिहार में किए गए अपने अध्ययन में जिस तरह के मामले पाए थे और उनके आधार पर उनके जो निष्कर्ष थे उनसे हाइपोग्साइसीमिक एनसेफ्लोपैथी को अधिक बल मिलता है। पुनः, इस वक्त 2019 में जो हालात हैं वह भी इसी ओर इशारा करते हैं। जबकि कई डॉक्टर AES पर जोर देते हैं।
कभी AES की प्रबल मौजूदगी रही हो इस बात से भी पूरी तरह इनकार नहीं किया जा सकता है। टीकाकरण के बाद इसके मामलों में काफी कमी पाई गई थी। आज, जो हालात हैं उसमे हाइपोग्साइसीमिक एनसेफ्लोपैथी के मामले ही अधिक हैं ऐसा कहा जा सकता है। हो सकता है कुछ मामले AES के भी हों। इस बारे में पूरी तस्वीर तभी साफ हो सकती है जब कि एक सुव्यवस्थित अधिकारिक शोध कराया जाए और इस दिशा में सरकार वर्षों से घोषणा करने के अलावा कुछ नहीं कर पाई है!
इस बीमारी पर मौलिक और गंभीर पढ़ना चाहते हैं तो देखें —
डॉ टी. जैकब जॉन की रिपोर्ट
Indian Pediatrics…
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